शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

bhaagavat 307-308

कैसे किया था कृष्ण ने अपनी पत्नियों से विवाह?
जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुल की स्त्रियां एकत्र होकर आपस में भगवान् की त्रिभुवन विख्यात लीलाओं का वर्णन कर रही थीं।कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों के साथ द्रौपदी बात कर रही थीं। कृष्ण की प्रिय सखी सबसे कृष्ण से विवाह संबंधी सवाल कर रही थीं।
द्रौपदी ने पूछा- हे श्रीकृष्णपत्नियों! तुम लोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी माया से लोगों का अनुकरण करते हुए तुम लोगों का किस प्रकार पाणिग्रहण किया?
रुक्मिणीजी ने कहा-द्रौपदीजी! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपाल के साथ हो, इसके लिए सभी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध के लिए तैयार थे। परन्तु भगवान् मुझे वैसे ही हर लाए, जैसे सिंह बकरी और भेड़ों के झुंड में से अपना भाग छीन ले जाए। क्यों न हो जगत् में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटों पर इन्हीं की चरणधूली शोभायमान होती है। द्रौपदीजी! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान् के समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यों के आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करने के लिए प्राप्त होते रहें, मैं उन्हीं की सेवा में लगी रहूं।
सत्यभामा ने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेन की मृत्यु से बहुत दुखी हो रहे थे, अत: उन्होंने उनके वध का कलंक भगवान् पर ही लगाया। उस कलंक को दूर करने के लिए भगवान् ने ऋक्षराज जाम्बवान् पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिता को दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलंक लगाने के कारण डर गए। अत: यद्यपि वे दूसरे को मेरा
वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तक मणि के साथ भगवान् के चरणों में ही समर्पित कर दिया।जाम्बवती ने कहा-द्रौपतीजी! मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान् को इस बात का पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान् सीतापति हैं। इसलिए वे इनसे सत्ताईस दिन तक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान् राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़कर स्यमन्तक मणि के साथ उपहार के रूप में मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूं कि जन्म-जन्म इन्हीं की दासी बनी रहूं।
कालिन्दी ने कहा-द्रौपतीजी! जब भगवान् को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणों का स्पर्श करने की आशा-अभिलाषा से तपस्या कर रही हूं, तब वे अपने सखा अर्जुन के साथ यमुना तट पर आए और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारने वाली उनकी दासी हूं।इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं।


कृष्ण सभी को कैसे खुश रखते थे?
इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। भगवान् अपने प्रत्येक विवाह से गृहस्थी में आध्यात्मिक जीवनशैली का संदेश दे रहे हैं। निवृत्ति मार्ग और प्रवृत्ति मार्ग में प्रथम को त्याग के माध्यम से प्राप्त किया जाता है और दूसरा संस्कारों से युक्त बलात मनुष्य या साधक द्वारा अपना लिया जाता है, यह उसे कालान्तर में सहज लगने लगता है। प्रवृत्ति मार्ग की दिशा बदलने का प्रयत्न योग शक्ति में निहित है।
यह योग ज्ञानयोग हो, कर्मयोग हो या भक्तियोग, कोई अन्तर नहीं पडऩा चाहिए श्रद्धा विश्वास और निष्ठा में। ज्ञान और कर्म अर्थात् निष्काम कर्म दोनों श्रेष्ठ हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-''सन्यास: कर्म योगश्च नि: श्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्म सन्यासात्कर्मयोगो विषिश्यते।। 2।। 5।। गीताकर्मों का त्याग और योग दोनों मोक्ष देने वाले हैं। उनमें भी कर्म-संन्यास से कर्मयोग श्रेयस्कर है। यहां स्पष्ट होना आवश्यक है कि वस्त्र त्याग या चोला बदलना यानी भगवा, पीले या सफेद वस्त्र धारण करने को संन्यास नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: जो मनुष्य द्वेष और इच्छा से मुक्त है उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिए।
इस पर गांधीजी की टिप्पणी विचारणीय है-''संन्यास का खास लक्षण कर्म का त्याग नहीं है, वरन् द्वन्दातीत होना ही है। एक मनुष्य कर्म करते हुए भी संन्यासी हो सकता है। ब्रम्हलीन स्वामी श्री विष्णुतीर्थजी महाराज ने गीतातत्वामृत में इसकी व्याख्या करके विषय को अधिक सरल और स्पष्ट कर दिया है। उनकी व्याख्या इस प्रकार है।......जिसकी पूर्व आश्रमों में श्रेय के मार्ग पर योगारूढ़ होने की तैयारी नहीं हुई है वह संन्यासी होकर भी नाम-मात्र का संन्यासी है और जिसकी कर्मकाण्ड में रहकर तैयारी हो गई है, वह संन्यास न लेने पर भी संन्यासी तुल्य ही है।
जो गृहस्थ भी कर्मों का फल न चाहकर और अन्त:करण शुद्धि को साधन समझकर नियतकर्म करता है वह आरुरुक्ष (संकल्पों विकल्पों का त्यागी, स्थिरचित्त, मनो निग्रही) की श्रेणी में आ जाता है। जब तक अन्त:करण की शुद्धि नहीं होती, मनुष्य जितेन्द्रिय नहीं होता, मन पर उसका वश नहीं होता, उसे ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती।

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