शनिवार, 9 जुलाई 2011

bhaagavat 308 : कैसे भगवान भक्तों को अपना बना लेते हैं?

द्रौपदी उनकी बातें सुनकर थकती न थीं। वह कृष्ण की लीलाओं का रस ले रही थीं। कैसे भगवान अपने भक्तों को अपना बना लेते हैं, उन पर किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आने देते। मित्रविन्दा ने कहा-द्रौपदीजी! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहां आकर भगवान् ने सब राजाओं को जीत लिया और जैसे सिंह झुंड के झुंड कुत्तों में से अपना भाग ले जाए, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारिकापुरी में ले आए।
मेरे भाइयों ने भी मुझे भगवान् से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूं कि मुझे जन्म-जन्म उनके पांव पखारने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।सत्या ने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजी ने मेरे स्वयंवर में आए हुए राजाओं के बल-पौरुष की परीक्षा के लिए बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलों ने बड़े-बड़े वीरों का घमंड चूर-चूर कर दिया था।

उन्हें भगवान् ने खेल-खेल में ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बांध दिया, ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरी के बच्चों को पकड़ लेते हैं। इस प्रकार भगवान् बल-पौरुष के द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरंगिणी सेना और दासियों के साथ द्वारिका ले आए। मार्ग में जिन क्षत्रियों ने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवा का अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे।
भद्रा ने कहा-द्रौपदीजी! भगवान् मेरे मामा के पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हीं के चरणों में अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजी को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान् को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत सी दासियों के साथ इन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया। मैं अपना परम कल्याण इसी में समझती हूं कि कर्म के अनुसार मुझे जहां-जहां जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हीं के चरणकमलों का संस्पर्श प्राप्त होता रहे।

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