रविवार, 10 जुलाई 2011

कृष्ण सभी को कैसे खुश रखते थे?

इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। भगवान् अपने प्रत्येक विवाह से गृहस्थी में आध्यात्मिक जीवनशैली का संदेश दे रहे हैं। निवृत्ति मार्ग और प्रवृत्ति मार्ग में प्रथम को त्याग के माध्यम से प्राप्त किया जाता है और दूसरा संस्कारों से युक्त बलात मनुष्य या साधक द्वारा अपना लिया जाता है, यह उसे कालान्तर में सहज लगने लगता है। प्रवृत्ति मार्ग की दिशा बदलने का प्रयत्न योग शक्ति में निहित है।
यह योग ज्ञानयोग हो, कर्मयोग हो या भक्तियोग, कोई अन्तर नहीं पडऩा चाहिए श्रद्धा विश्वास और निष्ठा में। ज्ञान और कर्म अर्थात् निष्काम कर्म दोनों श्रेष्ठ हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-''सन्यास: कर्म योगश्च नि: श्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्म सन्यासात्कर्मयोगो विषिश्यते।। 2।। 5।। गीताकर्मों का त्याग और योग दोनों मोक्ष देने वाले हैं। उनमें भी कर्म-संन्यास से कर्मयोग श्रेयस्कर है। यहां स्पष्ट होना आवश्यक है कि वस्त्र त्याग या चोला बदलना यानी भगवा, पीले या सफेद वस्त्र धारण करने को संन्यास नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: जो मनुष्य द्वेष और इच्छा से मुक्त है उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिए।
इस पर गांधीजी की टिप्पणी विचारणीय है-''संन्यास का खास लक्षण कर्म का त्याग नहीं है, वरन् द्वन्दातीत होना ही है। एक मनुष्य कर्म करते हुए भी संन्यासी हो सकता है। ब्रम्हलीन स्वामी श्री विष्णुतीर्थजी महाराज ने गीतातत्वामृत में इसकी व्याख्या करके विषय को अधिक सरल और स्पष्ट कर दिया है। उनकी व्याख्या इस प्रकार है।......जिसकी पूर्व आश्रमों में श्रेय के मार्ग पर योगारूढ़ होने की तैयारी नहीं हुई है वह संन्यासी होकर भी नाम-मात्र का संन्यासी है और जिसकी कर्मकाण्ड में रहकर तैयारी हो गई है, वह संन्यास न लेने पर भी संन्यासी तुल्य ही है।
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