बुधवार, 13 जुलाई 2011

हनुमान से सीखें दुश्मनों को दोस्त बनाना....

आपके संघर्ष की यात्रा में आप अकेले नहीं होते हैं, जितने मित्र होते हैं उससे अधिक शत्रु भी जुड़ जाते हैं। लेकिन हर काम को यदि सुंदरता से किया जाए तो एक जगह जाकर शत्रु और मित्र का फर्क ही खत्म हो जाता है।
सुंदरकाण्ड पढ़कर लोगों को यह समझ में आ जाता है कि हनुमानजी कर्म-धर्म, अनुराग-विराग, भक्ति-योग के समन्वय और संतुलन की पाठशाला हैं। इनके जीवन की एक-एक घटना यह सिखा देती है कि थोड़ी सी आध्यात्मिकता काफी है बहुत अधिक भौतिकता के लिए। भौतिकता के सही परिणाम पाना हो तो हल्का सा छींटा आध्यात्मिकता का देना पड़ता है।
लंका की ओर सीताजी की खोज में जैसे ही हनुमान उड़े, तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा है -
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।

देवताओं ने पवन पुत्र हनुमानजी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमानजी से कहा आज मुझे तुम्हारे रूप में भोजन प्राप्त हो गया है। हनुमानजी की सफलता की यात्रा में यह एक और बाधा थी। हम जब भी अपने कर्मक्षेत्र में उतरेंगे सुरसा जैसी बाधाएं भी आएंगी। सुरसा को सर्पों की माता कहा गया है।
सर्पिणी का स्वभाव है कि वह अपने ही अण्डे खा जाती है। हनुमानजी ब्रह्मचारी हैं और सामने एक स्त्री। यहां लिखा गया है-
सुनत बचन कह पवनकुमारा।
सुरसा की बात सुनकर तत्काल हनुमानजी ने उत्तर दिया। हनुमानजी समझा रहे हैं कि एक तो समस्या का निराकरण करने में देर न की जाए। पेंडिंग रखना आलस्य का रूप है और पहले सुरसा को शब्दों में समझाते हैं, उसके बाद क्रिया पर उतरते हैं। हमारे लिए यही सबक है कि चरणबद्ध चलें और समस्याओं को निपटाएं।

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