गुरुवार, 14 जुलाई 2011

उसका ऐसा रूप देखकर मुनि हैरान हो गए!

उस वैश्या ने मुनि की आश्रम पहुंचकर उनके दर्शन किए। उसने मुनि का आशीर्वाद लिया। ऋषिश्रृंग ने कहा आप की कांति साक्षात तेज पुंज के समान है। मैं आपको पैर धोने के लिए जल दूंगा। अपने धर्म के अनुसार कुछ फल भेट करूंगा। यह कृष्णचर्म से ढ़का हुआ आसन है। इस पर विराज जाइए। आपका आश्रम कहा है? आप किस नाम पसंद है। तब वैश्या बोली मेरा आश्रम यहां से तीन योजन की दूरी पर है। मेरा ऐसा नियम है कि मैं किसी के पैर नहीं छूता और नहीं किसी को छूने देता हूं।
तब ऋषि ने उसे कु छ फल दिए और कहा आप इसमें से रूचि अनुसार ग्रहण करे। उस वैश्या की लड़की ने उन सब फलों को त्यागकर अपने पास से कुछ स्वादिष्ट फल निकालकर व कुछ रसीले पदार्थ व शर्बत निकालकर मुनि को दिए। उसके बाद तो जैसे ऋषिश्रृंग का ध्यान भटकने लगा था। उसके बाद वो वैश्या वहां से चली गई। ऋषि श्रृंग उस वैश्या को पहचान नहीं पाएं क्योंकि वे स्त्री जाति से ही अनजान थे।जब ऋषिश्रृंग के पिता लौटकर आए तब उन्होंने उनसे कहा पिताजी आपके जाने के बाद एक जटाधारी ब्रह्मचारी आश्रम आए थे। वह सोने के समान काया वाले थे। उनके शरीर पर बिल्कुल रोम नहीं थे। गले के नीचे दो मासपिंड थे। वह चलता था तो अजीब सी झनकार होती थी। उसे देखकर मेरे मन में उसके प्रति बहुत प्रिति और आसक्ति उत्पन्न हो रही थी। उसने मुझे बहुत स्वादिष्ट फल और कुछ पदार्थ पिलाया जिसे पीकर मुझे बहुत आनंद हुआ। ऋषिश्रृंग की बात सुनकर विभांडक मुनि बोले बेटा ये तो राक्षस है।
ये ऐसे ही विचित्र और दर्शनीय रूप में घूमते रहते हैं। ये बहुत पराक्रमी होते हैं। बेटा ये तुम्हारी तपस्या में विघ्र डालना चाहते हैं। यह कहकर राक्षस ने उन्हें रोक दिया और खुद विभांडक मुनि उस वैश्या को ढंूढने लगे। जब तीन दिन तक कुछ पता नहीं चला तब वे आश्रम लौट आए। जब विभांडक मुनि आश्रम से बाहर गए तो वैश्या अपनी युक्ति से उन्हें ले गई और जैसे ही वे राजा लोमपाद के राज्य में पहुंचे तो वहां जल ही जल हो गया।

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