गुरुवार, 14 जुलाई 2011

...तो हम सब ज्यादा सुरक्षित रहेंगे

मिलजुलकर रहना हिम्मत का काम है। पहले कहा जाता था सब मिलकर रहेंगे तो सुरक्षित रहेंगे और आज महसूस किया जाता है कि अपनों से ही खतरे पैदा हो जाते हैं। दो-चार लोग मिलकर रहें दूर की बात है, अब तो एक छत के नीचे दो लोग पति-पत्नी के रूप में मिलकर नहीं रह पाते।
महात्मा गांधी ने अपने 11 व्रतों में स्पर्श भावना को भी एक व्रत कहा है। उनका मामला केवल छुआछूत से नहीं जुड़ा था। उस समय हो सकता है इस बात का महत्व था कि कोई अछूत न रहे, लेकिन आज इसके अर्थ और बदल गए। आदमी अपने ही लोगों को अछूत मानता है और वैसा ही व्यवहार करता है, जबकि हमें अपने पास, साथ रहने वालों के प्रति एक पवित्र स्पर्श का भाव होना चाहिए।
धर्म कुछ अलग सिखाता है इससे हटकर धार्मिकता यह सिखाती है कि जब हम अपने निजी जीवन के प्रति सम्मान का भाव रखेंगे, पूरे अस्तित्व के प्रति आभार की भावना रखेंगे तभी हम दूसरों के प्रति करुणामयी रहेंगे, स्पर्श भावना लिए हुए होंगे। स्पर्श भावना मनुष्य की स्वाभाविक मांग है। चाहे वह सत्संग से पूरी हो, दाम्पत्य से संतुष्ट हो या मित्रता से, पर बिना इसके काम नहीं चलता। अपने और दूसरे के शरीर के प्रति हमें बहुत ही पवित्रता का भाव रखना चाहिए। इससे हमारे मिलजुलकर रहने की वृत्ति पर बड़ा अनुकूल असर पड़ेगा।
शरीर को हथियार मानकर इस्तेमाल करना या अपवित्र जानकर दुरूपयोग करना पूरी शारीरिकता और परमात्मा दोनों का अपमान है। मानव मात्र का शरीर उतना ही पवित्र है जितना किसी साधु का या मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित प्रतिमा का। यह भाव जितना परिपक्व होगा परिवार और समाज में हमारी मिलजुलकर रहने की भावना उतनी ही दृढ़ होगी। ऐसी मानवीय समझ मनुष्यता के विकास के लिए बहुत ही जरूरी है।

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