सोमवार, 25 जुलाई 2011

भागवत ३२०

बस यही सबसे बड़ी जीत है....
संत, ऋषि, मुनि, साधु ये सब उसी को कहते हैं जिसने विषयों को जीत लिया, मन को नियंत्रित कर लिया। सब उसी के नाम हैं। यह जरूरी नहीं है कि वह संन्यास ले, भगवा वस्त्र पहने या जंगलों में रहे। मन को जीतना ही सबसे बड़ा काम है, जिसने इसे कर लिया वह स्वत: संत हो जाएगा। फिर चाहे संसार में रहे या जंगल में।
मन को जीतने के लिए विषयों पर विजय पाना आवश्यक है। विषय हमारे लिए रुकावट पैदा करते हैं। विषयों को जीतना हमारे लिए सबसे बड़ी जंग है। विषयों को जीतने की प्रक्रिया बहुत लम्बी है। बुराइयां हर मनुष्य में होती हैं इन्हें मिटाने के लिए मन पर नियंत्रण होना चाहिए। बुराइयों से निपटने के लिए वैराग्य जगाना पड़ता है। वैराग्य जगाने के लिए परमात्मा में मन लगाना जरूरी है।
विषयों से वैराग्य तब ही होगा जब निर्विषयी मन बनेगा। मन को निर्विषयी बनाना उसका पथान्तर करना है, इसकी सहज वृत्ति जगतमुखी है, इसे परमात्मा मुखी बनाने का अभ्यास करना आवश्यक है। महापुरुषों के वचनों सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय, सत्संग, भजन, एकान्तवास, कीर्तन, गायन (भक्ति गीत) आदि ऐसी आध्यात्मिक साधन युक्त परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं जिससे मन एकाग्रता के अनुकूल बनता है। इन्हें ध्यान का अंग भी कहा जा सकता है।
फिर वही सवाल उठता है कि महापापी-वैरी पुन: पुन: उपद्रव करे, बाधाएं डाले तब साधक के सामने शरणागति के अलावा कोई मार्ग नहीं रहता। वह अपने इष्ट से, अपनी अंतरात्मा से, अपनी अंतरशक्ति से निरन्तर प्रार्थना करता रहे। दुर्गासप्तसती में ऐसी ही प्रार्थना की गई है-''सर्वबाधा प्रशमनं त्रेलोक्यस्याखिलेश्वरी। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम।
सर्वेश्वरी-तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करो।राजसिक- प्रमाद, अनियमितता, तन-अ-रक्षण आदि बाधाएं हैं और शत्रु है-काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि। यह हमें याद रखना है। माँ के भौतिक रूप में कोई शत्रु नहीं सब उसकी सन्तान हैं।
बाधाएं और शत्रु जब समाप्त हो जाते हैं, तब मन में उठती तरंगें शान्त हो उसे निर्मल, निर्विकारी जल की मानिन्द स्तब्ध या स्थिर कर देती है। तब परमात्मा को जानने या उसके दर्शन करने की स्थिति बनती है। उसका प्रतिबिम्ब जो अन्तर आत्मा में है दृश्य होता है।

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