रविवार, 17 जुलाई 2011

'मैं' को नहीं छोड़ा, इसीलिये सब गया बेकार

अहंकार या झूठे घमंड का शिकार होकर अक्सर इंसान जिंदगी की वास्तविकता को भुला बैठता है। इसका सबसे बुरा परिणाम यह होता है कि वह इस शानदार जिंदगी को सभी के साथ मिल-जुलकर और हंसी-खुशी बिताने की बजाय झूठे अहंकार में ही बर्बाद कर देता है। ऐसा ही कुछ हुआ उस अहंकारी व्यक्ति के साथ जिसे समझ तो आई लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। हुआ कुछ यूं कि....
एक व्यक्ति को अपने पांडित्य यानि ज्ञान पर बहुत घमंड था। सारे वेद, पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथ उसे लगभग रटे हुए थे। यहां तक कि उसे पूरी दुनिया का इतिहास भी ज्ञात था। अपना धर्म ही नहीं दुनिया के अन्य सारे धर्मों के विषय में भी उसे बहुत कुछ ज्ञात और याद था। समाज में उसके ज्ञान की बड़ी तारीफ हुआ करती थी।
तारीफें सुनकर उसका घमंड पहले से भी ज्यादा बढ़ चुका था। वह रास्ते से निकलता तो बड़ा अकड़कर और चेहरे पर बड़े गंभीर विद्वान के से भाव बनाकर निकलता था। लेकिन वक्त कभी छोटे-बड़े या ज्ञानी-अज्ञानी का फर्क नहीं करता। देखते ही देखते उस अहंकारी व्यक्ति का अंतिम समय आ गया। जैसे ही उसके गुरु को इस बात का पता चला तो वे तुरंत दोड़ते हुए अपने शिष्य के पास आए।
शिष्य का आखिरी समय देखकर वे बोले कि बेटा मुझे पता है कि तुम जीवन का असली अर्थ और उद्देश्य नहीं समझ पाए हो इसीलिये तुम्हारे मन में अंदर ही अंदर कुछ कचोटता रहता है। आओ मैं तुम्हें जिंदगी का असली मर्म समझाऊं। मौत को सामने खड़ा देखकर भी शिष्य की आंखें नहीं खुल रही थी। वह अपने ज्ञान के अहंकार में ही बोला कि कोई किसी को कुछ नहीं सिखा सकता है। इंसान अकेला आता है और उसे जाना भी अकेले ही पड़ता है।
गुरू समझ गए कि शिष्य में मरते वक्त भी ज्ञान का ही घमंड बोल रहा है उसमे जरा सी भी विनम्रता नहीं है। यही सोचकर गुरु ने शिष्य से कहा कि बहुत कुछ जानकर भी तुम्हें अंदर की वास्तविक शांति नहीं मिली क्योंकि तुम्हारे ऊपर जीवनभर 'मैं' ही हावी रहा। जब तक यह 'मैं' तुमसे नहीं छूटता तुम्हें वास्तविक शांति मिल भी नहीं सकती। तुम्हारा सारा ज्ञान और पांडित्य खोखला और व्यर्थ ही है क्योंकि तुम जिंदगी का असल मकसद कभी नहीं समझ पाए।

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