चील, बाज, गिद्ध और गरुड़ ही नहीं, गौरैया भी अब भारत में लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई है। जलवायु परिवर्तन नहीं, मोबाइल फोन का चस्का इस चिड़िया की चहचहाहट के चुप हो जाने का प्रमुख कारण बन गया है।
एक समय था, जब भोर होते ही गौरैयों की चहक के साथ शहरों और गाँवों में दिन की चहल-पहल शुरू होती थी। अब वह शुरू होती है मोबाइल फोन प्रेमियों की बातचीत के साथ।
वैसे तो पूरी दुनिया में गौरैयों की संख्या तेजी से घट रही है। इस तेजी से कि पक्षी संरक्षण के लिए ब्रिटेन की रॉयल सोसायटी ने गौरैये को अब उस लाल सूची में शामिल कर लिया है, जो दिखाती है कि पक्षियों की कौन-कौन सी प्रजातियाँ विलुप्त हो जाने के खतरे का सामना कर रही हैं। लेकिन, आश्चर्य की बात यह है कि इस सोसायटी के अनुसार भारत में भी वह विलुप्त हो जाने के भारी खतरे में है।
केरल में कोलम के एसएन कॉलेज में जूलॉजी के प्रोफेसर डॉक्टर सैनुद्दीन पट्टाझी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं कि नया अध्ययन यही दिखाता है कि भारत के केरल सहित कई हिस्सों में गौरैया की संख्या लगातार घट रही है। शहरी इलाकों में उसने चिंताजनक रूप ले लिया है। कारण कई हैं। सबसे बड़ा कि अवैज्ञानिक कारण है मोबाइल फोन टॉवरों का तेजी से बढ़ना।
डॉक्टर पट्टाझी ने 2009-2010 में केरल में इस समस्या का खुद अध्ययन किया है। उन्होंने पाया कि रेलवे स्टेशनों, अनाज के गोदामों और रिहायशी बस्तियों में गौरैयाँ अब लगभग नहीं मिलतीं। कारण हैं कि कारों के लिए सीसारहित (अनलेडेड) पेट्रोल से पैदा होने वाले मीथाइल नाइट्रेट जैसे यौगिक, जो उन कीड़ों-मकोड़ों के लिए बहुत जहरीले होते हैं, जिन्हें गौरैयाँ चुगती हैं।
खेतों और बगीचों में ऐसे कीटनाशकों का बढ़ता हुआ उपयोग, जो गौरैयों के बच्चों लायक कीड़ों-मकोड़ों को मार डालते हैं। घास के खुले मैदानों का लुप्त होते जाना, आजकल के भवनों और मकानों की पक्षियों के लिए अहितकारी बनावट और जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान का बढ़ना भी।
लेकिन डॉक्टर पट्टाझी की सबसे चौंकाने वाली खोज यह है कि इमारतों की छतों पर मोबाइल फोन कंपनियों के बढ़ते हुए एंटेना और ट्रांसमीटर टॉवर गौरैया चिड़ियों की घटती हुई संख्या का आजकल मुख्य कारण बनते जा रहे हैं। उनका कहना है कि ये टॉवर रात दिन 900 से 1800 मेगाहर्ट्ज फ्रीक्वेंसी का विद्युतचुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन) पैदा करते हैं, जो चिड़ियों के शरीर के आर पार चला जाता है। उनके तंत्रिकातंत्र और उनकी दिशाज्ञान प्रणाली को प्रभावित करता है। उन्हें अपने घोंसले और चारे की जगह ढूँढने में दिशाभ्रम होने लगता है। जिन चिड़ियों के घोंसले किसी मोबाइल फोन टॉवर के पास होते हैं, उन्हें एक ही सप्ताह के भीतर अपना घोंसला त्याग देते देखा गया।
पट्टाझी यह भी कहते हैं कि वह समय भी बहुत लंबा हो जाता है, जो अंडों के सेने के लिए चाहिए। उनका कहना है कि एक घोंसले में एक से आठ तक अंडे हो सकते हैं। उन्हें सेने में लिए आम तौर पर 10 से 14 दिन लगते हैं लेकिन जो अंडे किसी मोबाइल फोन टॉवर के पास के किसी घोंसले में होते हैं, वे 30 दिन बाद भी पक नहीं पाते।
डॉक्टर पट्टाझी ने अपनी खोजों के आधार पर 2009 में भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ को भी लिख कर अनुरोध किया कि गौरैये को सदा-सदा के लिए लुप्त हो जाने से बचाया जाए। भारत सरकार की प्रतिक्रिया यह रही कि उसने गौरैयों की संख्या में गिरावट का सर्वेक्षण करने के लिए एक तीन वर्षीय परियोजना शुरू करने का आदेश दिया है।
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