रविवार, 11 जुलाई 2010

अपने-अपने विश्व कप

गोपाल चतुर्वेदी
इधर फुटबॉल विश्व कप होता है और इधर हमें उदासी का दौरा पड़ता है। इतना बड़ा देश। सड़कें सिमटाती आबादी। करोड़ों युवा। लाखों स्कूल। अनगिनत कोच। एशिया से जापान जैसे टापू देश की टीम इसमें भाग लेती है, उत्तर और दक्षिण कोरिया तक की भी। हम हैं कि क्वालीफाई तक नहीं कर पाते। हम होंगे कामयाब का तराना गुनगुनाते हैं तो बौने मुल्क हमारी महानता को अँगूठा दिखाते हैं।

ऐसा नहीं है कि हम शरम-प्रूफ हैं। छोटे देश अज्ञानी हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि हम तवारीखी ही नहीं, एक अहिंसक राष्ट्र भी हैं। हजारों साल का हमारा इतिहास है। महावीर, बुद्ध, गाँधी की विरासत है। पेड़ तक पूजनीय हैं। चीटीं तक को कुचलना पाप है। राक्षस जैसे मंत्री माननीय हैं। इस हालात में हम दुनिया की तरह गोल निरपराध फुटबॉल को फिजूल में लात कैसे मारें?

यह तो हद दर्जे की नाइंसाफी होगी। हम न्यायप्रिय हैं। यह बात दीगर है कि हमारी व्यवस्था आम आदमी को लात-घूसे मारने में गुरेज नहीं करती है। दरअसल, यह एक दार्शनिक मसला है। इंसान के पास जुबान है। वह बोलने-चीखने में समर्थ है। अगर तब भी उसे चैन न मिले तो कोर्ट जाए। न्याय की अंधी देवी के सामने सब बराबर है, इंसान भी, व्यवस्था भी। इसका कोई क्या करे कि धनवान और सत्तावान निर्धन से कुछ ज्यादा ही बराबर है। निर्धनों के लिए कोर्ट, पेशी व वकीलों के चक्कर हैं। इंसाफ उसकी पहुँच के बाहर है। यों भी गरीब के जीवनपर्यंत तो मुकदमा चलना ही चलना। संभावना यही है कि यदि भाग्यशाली है तो उसके टें बोलने के पूर्व उसे इंसाफ मिले। चेतन के मुकाबले जड़ के प्रति हम इसीलिए मेहरबान हैं। वह न तो विरोध कर सकता है और न ही कोर्ट जा सकता है। बेजुबान जो ठहरा!

पिछले कुछ सालों में हमारी अहिंसा की अवधारणा भी समय के साथ बदली है। जड़ के दायरे में फुटबॉल, क्रिकेट, हॉकी वगैरह की गेंदें हैं। हम उन्हें मारने से कतराते हैं। पेड़, झुग्गी-झोपड़ी, मकान वगैरह चेतन हैं। जुबान रखते हैं। पेड़ों में प्राण है, बाकी में प्राणी। दोनों संहार के सुपात्र हैं क्योंकि विकास की राह के रोड़े हैं। सड़क का चौड़ीकरण होना है। उसके पीछे वाले मैदान में मॉल जो बन रहा है। तरक्की के लिए त्याग तो लाजमी है।

प्रतियोगिता के जमाने में प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने के लिए छल, बल, मुक्का, लात, कोहिनी, कंधा सब चलता है। व्यापार, सरकार और सियासत सबमें ऐसा दिलकश नजारा आम है। विचारणीय है कि मैदान की फुटबॉल राष्ट्रीय हित में ज्यादा जरूरी है कि बाहरी प्रतियोगी सिर फुटौव्वल। मैदान में जीते तो क्या हासिल होता है? गर्दन में लटकाने को एक मैडल और दुनिया को दिखाने को एक कप। वहीं बाहरी प्रतियोगिता में लाखों-करोंड़ों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। न मैडल से कोई नौकरी मिलती है, न कप हासिल करने से। भूले-भटके कोई पद्म-शद्म पा भी गए तो उसे ओढ़ें, बिछाएँ, खाएँ, पहनें क्या करें? टाँग-शाँग टूटी तो 'लंगड़दीन, टके के तीन' कहकर मोहल्ले के बच्चे अलग छेड़ते हैं।

भैया! कोई मैदान के बाहर फ्री किक, टैकल व फाउल की प्रतियोगिता हो तो हमें बताओ। हम उसे शर्तिया जीत कर दिखाएँगे! इस मैदानी फुटबॉल में धरा ही क्या है?

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