राजीव गुप्ता
चंपक वन का नम्बर वन जासूस जैकी डॉग इस समय राजा शेर सिंह के सामने बैठा था। दोनों ही बहुत गंभीर नकार आ रहे थे। दरअसल चंपक वन में इन दिनों ताबड़तोड़ चोरियां होने लगी थीं जिससे आम जनता बहुत परेशान थी। इसी का सुराग लगाने के लिए उन्होंने जैकी को बुलाया था।
‘‘हां, बात तो कुछ अजीब सी लगती है, सर। रातभर आपकी खुफिया पुलिस के सिपाही घूमते रहते हैं, फिर भी चोरियां हो जाती हैं।’’ जैकी ने कहा।
‘‘मिस्टर जैकी, दरअसल जिस रात मेरे खुफिया सिपाही गश्त पर नहीं होते हैं, उसी रात चोरियां होती हैं। पता नहीं यह बात चोरों को कैसे मालूम हो जाती है,’’ शेरसिंह ने परेशान होते हुए कहा।
‘‘वैसे यह बात आपके अलावा और कौन-कौन जानता है कि कब खुफिया पुलिस रात को पहरा देगी और कब नहीं?’’ जैकी ने पूछा।
‘‘मेरे सेनापति जी’’ शेर सिंह ने कहा।
‘‘ठीक है सर, मैं आज से ही इस बात का पता लगाने में जुट जाता हूं।’’ जैकी ने उठते हुए कहा।
जैकी कई दिनों तक इस बात का पता लगाने की कोशिश करता रहा। आखिर एक दिन उसको इस रहस्य की जानकारी हो ही गई। उसी दिन शाम के समय वह राजमहल पहुंचा।
‘‘क्या हुआ मिस्टर जैकी, चोरों का कुछ पता लगा।’’ शेर सिंह ने पूछा।
‘‘लग जाएगा सर। आज नहीं तो कल, आखिर चोर जाएंगे कहां? चलिए कुछ देर छत पर चलते हैं। देखिए आज मौसम कितना सुहावना हो रहा है,’’ जैकी ने कुछ अजीब अंदाका में कहा।
शेर सिंह को उसकी बातें कुछ अटपटी सी लगीं, फिर भी वे दोनों राजमहल की छत पर पहुंचे। छत पर सोनू गधा पतंग उड़ाने की तैयारी कर रहा था।
‘‘ओह पतंगबाजी’’ उसे देखकर जैकी मुस्कुराया।
‘‘यह मेरा खास सेवक है। इसे पतंग उड़ाने का बहुत शौक है,’’ महाराज ने कहा।
‘‘गुड, पतंग उड़ाने का शौक तो मुझे भी है सर। लाओ आज मैं भी पतंग उड़ाता हूं।’’ जैकी ने कहा और सोनू से चर्खी ले ली। सोनू ने उसे उड़ाने लिए लाल पतंग देना चाही।
‘डियर सोनू, लाल पतंग से मुझे बेहद चिढ़ है। हां, यह हरी पतंग ठीक रहेगी’’ जैकी ने डोर से हरी पतंग बांधते हुए कहा। यह देखकर सोनू के चेहरे पर हवाइयां उडऩे लगीं। लेकिन उसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। उस दिन जैकी ने जमकर पतंगबाजी की। उस रात जैकी राजमहल के अतिथि गृह में ही रुक गया और वह रातभर सोनू से पतंगबाजी पर ही बातें करता रहा। न वह खुद सोया, न ही उसे सोने दिया। बेचारा सोनू इस झपकी जासूस से बहुत परेशान हो गया।
सुबह-सुबह ही राजमहल में अच्छी-खासी चीख-पुकार मची थी। चालू लोमड़ी, कालू भेडिय़ा, गुंडे सियार एवं भोंभों कुत्ते की डंडों से पिटाई हो रही थी। जैकी सोनू के साथ अतिथि-गृह से बाहर निकला।
‘‘देखिए मिस्टर जैकी, कल रात मेरे खुफिया पुलिस के सिपाहियों को बड़ी सफलता मिली। एक साथ ही सभी शातिर चोरों को गिरफ्तार कर लिया है,’’ शेरसिंह ने गर्व के साथ कहा।
‘‘मैं जानता था सर, पर यह मेरी पतंगबाजी का कमाल है।’’ जैकी रहस्यमय ढंग से बोला।
‘‘क्या मतलब?’’ शेरसिंह चौंके।
‘‘हरी पतंग यानी कि आज कोई डर नहीं, खूब जमकर चोरी करो। लाल पतंग यानी कि आज खुफिया पुलिस रात में ड्यूटी देगी, सावधान रहना,’’ जैकी मुस्कुराता हुआ बोला।
‘‘ओह, तो ये सोनू हरी और लाल पतंग उड़ाकर चोरों को सिग्नल देता था। और मैं सोचता था कि यह बेचारा कभी महल से बाहर ही नहीं जाता,’’ शेर सिंह ने सोनू को घूरते हुए कहा।
‘‘तभी तो आपको कभी इस पर शक नहीं हुआ। यह आप का मुंह लगा सेवक था और यह सारी खबरें लीक कर देता था। चोरी के माल में इसका भी कमीशन होता था, जो चुपचाप इसके घर पहुंचा दिया जाता था।’’
‘‘कल भी यह लाल पतंग उड़ाकर चोरों को सावधान करना चाहता था। पर मैंने हरी पतंग उड़ाकर इसका प्लान ही फेल कर दिया।’’ जैकी ने सारी बातें बताईं, तो वहां उपस्थित सभी जानवर आश्चर्यचकित रह गए। इधर सोनू गधे का चेहरा भय से पीला पड़ता जा रहा था। उसकी योजना ही विफल नहीं हुई थी, अब तो शेष जीवन भी कालकोठरी में बीतने वाला था।
सोने का नेवला
राजकुमार जैन
घटना महाभारत काल की है। इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हो चुका था। इस महान यज्ञ में पधारे हुए समस्त ऋषि-मुनि, राजा-महाराज और अन्य अतिथिगण पूर्ण संतुष्टि के साथ प्रस्थान कर चुके थे। पांचो पाण्डव भ्राता तथा श्रीकृष्ण यज्ञ की सफलता की चर्चा में मगन थे। पाण्डव इस बात से आत्म संतुष्ट थे कि इस राजसूय यज्ञ का फल उन्हें अवश्य प्राप्त होगा।
पाण्डव श्रीकृष्ण की यह बातचीत चल ही रही थी कि एक नेवला राजमहल के भण्डार गृह से बाहर निकला और धरती पर लोटने लगा। फिर वापस भण्डार गृह में चला गया। यह प्रक्रिया उसने चार-पांच बार दोहराई। यह कोई साधारण नेवला नहीं था। इसका आधा शरीर तो स्वर्ण की भांति जगमगा रहा था और शेष आधा शरीर साधारण नेवलों के जैसा था। इस विलक्षण नेवले की विचित्र हरकतें देख कर पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
पाण्डवों के सबसे बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर पशु-पक्षियों की भाषा समझने में प्रवीण थे। वह उठे और भण्डार गृह तक जाकर नेवले से बोले- ‘हे नेवले, यह तुम क्या कर रहे हो? तुम्हें किस वस्तु की तलाश है?’
नेवले ने आदरभाव से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और बोला, ‘हे राजन, आपने जो महान यज्ञ सम्पन्न किया है, उससे आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई है। इस यज्ञ से आपको जिस पुण्य की प्राप्ति होगी, उसका कोई अंत नहीं है। मैं तो इस पुण्य के अनंत सागर में से पुण्य का एक छोटा-सा अंक अपने लिए ढूंढ रहा हूं’
नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर असमंजस में पड़ गए। उन्होंने नेवले से पूरी बात स्पष्ट रूप से कहने को कहा।
तब नेवला बोला- ‘मेरा आधा शरीर सोने का है, शेष आधे शरीर को स्वर्णिम बनाने के लिए मैं आपके भण्डार गृह में लोट रहा हूं। पूरे वृत्तांत को समझने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाया हूं। कृपया आप ध्यानपूर्वक सुनिए।’
यह कहकर उस विचित्र नेवले ने कहानी कहना प्रारम्भ किया- ‘बहुत सालों पहले राज्य में भयानक अकाल पड़ा, लोग भूख और प्यास के मारे प्राण त्यागने लगे। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी।’
उस समय एक गांव में चार सदस्यों का एक परिवार रहता था। परिवार का मुखिया, उसकी पत्नी, उसका पुत्र तथा पुत्रवधु बेचारे अत्यंत दीन-हीन थे। अकाल के कारण उस परिवार में आए दिन भूखों मरने की नौबत आने लगी। एक बार मुखिया और उसके बेटे को कई दिनों तक कोई काम नहीं मिला। घर में खाने को कुछ नहीं था। पूरा परिवार कई दिनों से भूखा था।
परिवार के मुखिया से अपने परिवार को भूख से तड़पता नहीं देखा गया। वह भोजन की तलाश में घर से निकला। काफी प्रयत्नों के बाद उसे थोड़ा-सा आटे का चोकर प्राप्त हो सका। वह उसे लेकर अपने घर आया। मुखिया की पत्नी ने उस चोकर की चार रोटियां बनाईं। परिवार के प्रत्येक सदस्य को एक-एक रोटी मिली। वह सब मिलकर रोटी खाने बैठे ही थे कि उन्हें घर के द्वार पर एक व्यक्ति दिखाई दिया। वह भूख के कारण बिलबिला रहा था।
मुखिया आदरपूर्वक उसे घर में लाया। उस व्यक्ति ने बताया कि वह कई दिनों से भूखा है। मुखिया उसकी बात सुनकर विचार में पड़ गया। उसकी आंखों के आगे अपने तथा अपने परिवार की कई दिनों की भूख के करुण दृश्य उभर आए। वह स्वयं भूखा था। उसके मन में अन्तर्द्वंद चलने लगा।
अंत में उसने स्वयं भूखा रहकर घर आए मेहमान को भोजन कराना अपना धर्म समझा। यह सोचकर उसने अपने हिस्से की रोटी उस व्यक्ति को दे दी। वास्तव में वह व्यक्ति बहुत भूखा था, वह तुरंत उस रोटी को खा गया। वह फिर गिड़गिड़ाने लगा- ‘आपने बहुत दया करके मुझे रोटी दी लेकिन इसे खाकर मेरी क्षुधा और बढ़ गई है। कृपया मुझे एक रोटी और दें।’
इस प्रकार क्रमश: मुखिया की पत्नी, पुत्र तथा पुत्रवधु के हिस्से की रोटियां भी मुखिया ने इस व्यक्ति को दे दीं। मेहमान चारों रोटियां खाकर तृप्त भाव से मुखिया के परिवार को आशीर्वाद देता हुआ चला गया।
इधर भूख के कारण परिवार के मुखिया और अन्य सदस्यों की हालत बिगडऩे लगी। अंत में उन चारों ने एक-एक करके भूख से तड़पते हुए अपने प्राण त्याग दिए।
नेवले ने कुछ देर रुककर आगे कहना शुरू किया, ‘उस समय मैं स्वयं भी भूख के कारण अत्यंत व्याकुल हो रहा था तथा भोजन की तलाश में घूमता हुआ, उस घर में जा पहुंचा। वहां चारों प्राणी मृत पड़े हुए थे। भोजन ढूंढता हुआ मैं उस घर के चूल्हे तक जा पहुंचा। वहां कुछ नहीं मिला, तो थकान के मारे मैं वहीं सो गया। कुछ देर बाद जब मेरी नींद खुली और मैं चलने को हुआ तो मैं यह देखकर आश्चर्य चकित रह गया कि मेरा आधा शरीर सोने का हो गया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया?’
मैं एक पहुंचे हुए ऋषि के पास पहुंचा और उन्हें सारा वृतान्त सुनाकर यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि मेरे शरीर का अर्द्ध भाग सोने का कैसे हो गया?
ऋषि अपने ज्ञान के बल पर पूरी घटना जान गए थे। वह बोले, ‘जिस जगह चूल्हे के पास तुम लेटे हुए थे, उस स्थान पर चोकर का थोड़ा-सा अंश बिखरा हुआ था। यह वही चोकर था, जिससे मुखिया की स्त्री ने अपने परिवार के लिए चार रोटियां बनाई थी। वह चमत्कारिक चोकर तुम्हारे शरीर के जिस-जिस भाग पर लगा वह भाग स्वर्णिम हो गया है।’
इस पर मैंने ऋषि से प्रश्न किया ‘महात्मन, कृपया मेरे शरीर के शेष भाग को भी सोने का बनाने हेतु कोई उपाय बताइए।’
ऋषि ने कहा, ‘उस परिवार तथा उसके मुखिया ने धर्म और मानवता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। वह लोग स्वयं भूखे रहे, किन्तु घर आए अतिथि का सत्कार किया। यही कारण है कि उसके बचे हुए अन्न में इतना प्रभाव उत्पन्न हो गया कि उसके स्पर्श मात्र से तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया। भविष्य में यदि कोई व्यक्ति उस परिवार की भांति ही धर्म और पूर्ण करेगा तो उसके बचे हुए अन्न के प्रभाव से तुम्हारा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाएगा।’
यह कहानी सुनकर नेवले ने धर्मराज युधिष्ठिर को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘हे राजन, जब मैंने आपके विराट राजसूय यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा, आपने इस यज्ञ मैं अपार सम्पदा निर्धनों को दान की है और लाखों भूखों को भोजन कराया है।
अत: आपने जो अपरम्पार पुण्य कमाया है, संभवत: उसके प्रताप से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाए।
यह सोचकर मैं बार-बार आपके भण्डार गृह के भीतर जाकर और बाहर आकर धरती पर लोट रहा था कि यज्ञ से बचे अन्न के स्पर्श से मैं पूर्णरूपेण स्वर्णिम शरीर प्राप्त कर लूं किंतु राजन मेरा शरीर तो पूर्व की ही भांति है।’
इतना कहकर नेवला मौन हो गया। युधिष्ठिर ने संक्षेप में पूरा वृत्तांत अपने भाइयों को बताया, सभी पाण्डव विचार करने लगे कि क्या हमारे इस विराट यज्ञ का पुण्य इतना भी नहीं है कि यह नेवला अपने शेष आधे शरीर को सोने का बना सके?
क्या उस परिवार का पुण्य हमारे रीति-अनुकूल विशाल यज्ञ से भी अधिक है?
श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को जब इस प्रकार चिंतामग्न देखा तो वह बोले- ‘बंधुओं, यह सत्य है कि आपका यज्ञ अपने में अद्वितीय था, जिसमें आप लोगो ने निर्धनों को जी खोलकर दान दिया और असंख्य भूखे व्यक्तियों की भूख-शांत की, किन्तु नि:संदेह उस परिवार का दान आपके यज्ञ से बहुत बड़ा था क्योंकि उन लोगों ने उस स्थिति में दान दिया, जब उनके पास कुछ नहीं था।
अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उस परिवार ने अपने पास उपलब्ध समस्त सामग्री उस अज्ञात अतिथि की सेवा में अर्पित कर दी। आपके पास बहुत कुछ होते हुए भी आपने उसमें से कुछ ही भाग दान किया। अत: आपका दान उस परिवार के अमूल्य दान की तुलना में पासंग भर भी नहीं है।’
श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी उस परिवार के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो गए।
बादल कहां गया?
नन्हा बादल अचानक ही लापता हो गया था। रोका की तरह वह दोपहर स्कूल तो गया पर शाम को घर नहीं लौटा जैसे कि वह रोका लौटता था और मां को रिमझिम वाली कविता सुनाता था। शाम हो गई। फिर रात हुई, आसमान के बाकार में तारों के तमाम बल्ब जगमगाने लगे। धरती पर सारे पेड़-पौधे, पहाड़-मैदान सब सो गए पर बादल के माता-पिता को नींद नहीं आई। आखिर बादल कहां रह गया!! फिर होते-होते सुबह भी हो गई पर वह नन्हा प्यारा सबका दुलारा, सांवला-सलोना, चुलबुला-गुलफुला बादल नहीं आया। बादल के माता-पिता हर मिलने वाले से एक ही बात पूछते ‘क्या तुमने कहीं बादल को देखा?’
‘नहीं!! हमने तो नहीं देखा।’ हर कोई यही जवाब दे रहा है। फिर बादल कहां गया? ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ। हमेशा वह समय पर ही स्कूल जाता था और समय पर ही घर लौटता था। कभी देर हो भी जाती तो स्कूल से प्रिंसिपल की सूचना आ जाती थी कि आपका बच्चा किसी कारण से रोक लिया गया है और दो घंटे देर से आएगा..। उनका ऐसा कोई दुश्मन भी नहीं कि बच्चे को अगवा करने की बदनीयत रखता हो या कि वे इतने अमीर भी नहीं हैं कि मोटी रकम के लिए कोई बच्चे का अपहरण करे। फिर आखिर बादल गया कहां?
‘मुझे एक बार फिर बताओ कि बादल को तुमने आखरी बार कब देखा था?’ बादल के पिता फिर-फिराकर बादल की मां से एक ही सवाल पूछ रहे थे और वह एक ही जवाब देते काफी उकता गई थी- कितनी बार बताऊं कि मैने उसे ग्यारह बजे देखा था, ग्यारह बजे देखा था.....ग्यारह बजे देखा था जब वह किरण (स्कूल की बाई) के साथ स्कूल गया।’ ‘ठीक है.. ठीक है’ बादल के पिता ने कुछ शर्मिन्दा होकर कहा? ‘अच्छा, जाते समय रोका की तरह खुश था या....’ ‘अरे बाबा खुश था..बहुत खुश.....मां ने कहा।’ ‘हमें स्कूल के प्रिंसिपल से भी कुछ पूछताछ करनी चाहिए।’ यह कहकर वे डायरी में प्रिंसिपल का फोन नम्बर तलाशने लगे।
प्राचार्य (प्रिंसिपल) सूरज कुमार जी छत पर खड़े ठंडी हवा का आनन्द ले रहे थे और उड़ती-चहकती चिडिय़ों को देख मुस्कुरा रहे थे। नारंगी रंग के गाउन में खूब जंच रहे थे। अचानक उनका टेलीफोन बजने लगा...ट्रिन-ट्रिन। ‘हैलो’ सूरज ने रिसीवर उठाकर हल्के-फुल्के अन्दाका में कहा पर कुछ देर में उनका लाल चेहरा पीला पड़ गया और फिर सफेद फक्....‘उनके स्कूल का बच्चा गायब हो गया? घर पहुंचने से पहले ही? पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ?’ उन्होंने तुरन्त झकाझक सफेद कपड़े पहने, चश्मा लगाया और छड़ी उठाई। फिर कडक़कर चपरासी को पुकारा और कहा- ‘तुरंत स्कूल के पूरे स्टाफ को मेरे ऑफिस में आने को कहो।’ पलक झपकते ही सारा स्टाफ साहब के कक्ष में था।
साहब ने सबको बादल के गुम हो जाने की सूचना दी और फिर सबसे उसके विषय में आवश्यक जानकारी ली। ‘श्रीमान रोका की तरह मैंने बादल को उसके घर से लाकर स्कूल में छोड़ा था और सब कुछ ठीक-ठाक था’ सबसे पहले किरण ने कांपते हुए कहा।
‘प्रार्थना के बाद, श्रीमान जी, मैंने पहले कालखण्ड में उसे तापमान के जोड़-बाकी सिखाए थे। फिर तारों को गिनना और... ’ ‘ठीक है, आगे कोई और बताए’- प्रिंसिपल ने बीच में ही टोका ‘मैैने उसे नाव और चिडिय़ा बनाना सिखाया....’ ‘पांचवे कालखण्ड में बच्चों ने कविता सीखी उनमें बादल भी था...’ सबने बादल के विषय में प्राचार्य को सारी जानकारियां दीं। प्राचार्य माथे पर उंगली टिकाए सोचते रहे फिर बोले-‘पर छुट्टी के बाद वह किसके साथ, कहां गया?
यह सवाल तो अभी वैसा का वैसा ही रहा न?’ ‘बादल के घर तक ‘‘हवारानी’’ ले जाती है। वह यहां आई नहीं है’ एक शिक्षक का ध्यान गया। ‘संभव है कि बादल हवारानी के साथ ही कहीं चला गया हो।’ दूसरे शिक्षक ने अनुमान लगाया। तभी वहां चंदामामा आया। वह स्कूल का चौकीदार है और रात में स्कूल की रखवाली करता है। मीटिंग के कारण आज वह घर नहीं गया था। आते ही बोला- ‘संभव नहीं, श्रीमान जी, निश्चित ही। शाम को मैं जब डयूटी पर आ रहा था मैंने उसे हवारानी के साथ दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा था’ ‘कहीं तुम्हें ऐसा लगा कि उसके साथ जबरदस्ती की जा रही है?’- प्राचार्य ने पूछा। ‘नहीं, श्रीमान’ चन्दा मामा जोर देकर बोले- ‘वह बहुत खुश था और लगता था कि हवारानी उसे नहीं, वह हवारानी को ले जा रहा हो।’ ‘तब ज्य़ादा चिन्ता की बात नहीं है। पर हमें ये बात बादल के माता-पिता को जरूर बतानी चाहिए।’
इस सूचना से बादल के माता-पिता को कुछ राहत तो मिली पर उन्हें हैरानी थी कि बादल हवा के साथ भला कैसे चला गया! और वह तो बच्चा है, क्या हवा को उसे समझाकर घर नहीं लाना चाहिए था जबकि यही उसकी डयूटी भी है। हो सकता है हवा की नीयत बदल गई हो। आजकल पैसे के लिए लोग जाने क्या-क्या कर गुकारते हैं।
बादल के माता-पिता यह तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि उनका अपना बेटा ही अब घर नहीं आना चाहता, पर सच तो यही था। हुआ यूं कि शाम को छुट्टी के बाद जब वह हवारानी की उंगली थामे घर की तरफ आ रहा था, अचानक रुक गया और हवारानी से बोला- ‘दीदी, हम घर न जाकर घूमने क्यों न चलें?’ ‘बच्चे, तुम्हारे माता पिता कितने परेशान होंगे, जानते हो?’ हवारानी ने उसे प्यार से समझाया। ‘मुझे परवाह नहीं। तुम नहीं जानती कि वहां मेरे लिए कुछ अच्छा है ही नहीं। न हरे भरे जंगल-बगीचे हैं, न खेलने को मैदान। सिर्फ घुटन और गर्मी है। वहां मेरी परवाह करता कौन है?’ ‘जैसा तुम चाहो’ हवारानी मुस्कुराकर बोली। वह बादल की हर बात का ख्याल रखती थी। ‘कहां चलना चाहते हो भला?’ ‘जहां खूब घने जंगल हों।’ ‘सोच लो, वो जगह तुम्हारे घर से बहुत दूर होगी। कहीं माता-पिता की याद करके तुम रोने लगे तो?’ ‘ऐसा कभी नहीं होगा दीदी।’ बादल हवा के साथ उछलता-कूदता चला गया।
हवारानी का ख्याल था कि एक दो दिन खेल कूदकर बादल का मन भर जाएगा और वो घर लौट आएगा पर बादल तो जो हरे-भरे जंगलो में रमा, तो फिर लौटने को तैयार ही नहीं हुआ। हवा समझाती रही पर बाद में उसे भी लगा कि नन्हें बादल की नाराकागी गलत भी नहीं है। सो वह भी बादल को वापस लाना भूल ही गई। दिन, हफ्ते, महीने और पूरा साल होने को आया पर बादल नहीं लौटा। घरवालों की आंखें, राह देखते-देखते पथरा-सी गईं। मां सूखकर दुबली हो गई। होंठो पर पपडिय़ां जम गईं। पिता का हिलौरे लेता बदन भी दुबला गया। पापा-पापा उनके दुख में दुखी होकर मुरझा गया पर बादल नहीं आया। बादल के माता पिता विवश थे। वे हवारानी का कुछ बिगाड़ भी नहीं सकते थे। एक तो उसका कोई एक ठिकाना न था। दूसरे उसके खिलाफ कोई बोलने तक को तैयार न था। पर बादल को तो उसके चंगुल से निकलवाना ही था।
बेशक नन्हें बादल को तो उसने बरगलाया था। इसलिए उन्होंने हवा के नाम एक विनम्रता भरा इश्तिहार निकलवाया- ‘हवा बहन तुम बादल को लेकर आ जाओ। तुम जो कहोगी हम करेंगे। जो मांगोगी हम देंगे।’ ‘मुझे देने के लिए तुम्हारे पास है ही क्या? हवा ने इश्तिहार पढ़ा तो तुरंत बादल के माता-पिता के पास खुद ही आई बादल के बिना ही।’ ‘तुम मांगो तो सही।’- बादल के माता-पिता बोले। ‘वैसे हमें उम्मीद न थी कि तुम ऐसा कुछ कर सकती हो, फिर भी अपने बादल के लिए हम कुछ भी देने को तैयार हैं। मांगो लाख... दो लाख... दस लाख....!’ ‘ठीक है’ हवारानी इत्मीनान से बोली- ‘लेकिन रुपये नहीं..!’ ‘तो फिर’, बादल के माता-पिता उलझन में पड़ गए। ‘पेड़-पौधे... जंगल...बगीचे..!!‘ ‘जंगल ?.. बगीचे?..’ बादल के माता-पिता हैरान हुए, लेकिन जंगल बगीचे का तुम क्या करोगी? ‘तुम बादल का क्या करोगे?’ हवा ने गरम होकर कहा। ‘ठीक है, ठीक है..’ बादल के माता-पिता घबराकर बोले- ‘हमें तुम्हारी हर शर्त मंजूर है। बादल को तो ले आओ।’ ‘अभी नहीं-’ हवा ने बेफिक्री के साथ कहा।
वह जानती थी कि बादल तब तक आने को तैयार नहीं होगा जब तक उसे खूब सारे जंगल, बाग, बगीचे, खेलने के लिए न मिलेंगे। ‘इस हाथ फिरौती की रकम और उस हाथ तुम्हारा बादल.. बोलो..’ हवा ने सूखते हुए से एक पौधे को सहलाते हुए कहा। ‘लेकिन हवा बहन पेड़ पौधे कोई डिब्बे में रखे लड्डू तो है नहीं कि निकालो और दे दो। उसमें समय तो लगेगा न?’ ‘यह तुम्हारी समस्या है... मेरी नहीं...’ हवा ने जाते हुए कहा। ‘हवा बहन सुनो तो... ’ बादल के माता-पिता चिल्लाते रह गए और हवा रानी हवा हो गई। सुना है कि हवा की मांग पूरी करने के लिए माता-पिता पुकार कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अपने प्यारे बादल को वापस जो लाना है।
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