आज से कोई 36-37 साल पहले जब मैंने पत्रकारिता शुरू ही की थी, मेरी नजरों में एक ऐसा लेख आया जिसे पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया। यह लेख हिमालय के सुदूरवर्ती इलाकों में रहने वाली एक ऐसी जाति के बारे में था, जिसमें एक ही औरत के तीन-चार पति तक हो सकते थे। लेख में बताया गया था कि इस जाति या कबीले में शताब्दियों से यह रिवाज रहा है कि बड़ा भाई शादी करता है और उसकी पत्नी उसके सारे भाइयों की भी पत्नी बन जाती है।
तब तक मैंने महाभारत में द्रौपदी की कथा ही पढ़ी थी, जिसे अर्जुन ने स्वयंवर में जीता था और वह पाँचों पांडवों की पत्नी बनी थी। मुझे कुंती का यह फैसला बेहद गलत लगा था कि द्रौपदी पाँचों पांडवों की पत्नी होगी। मुझे इस बात से भी धक्का लगा कि द्रौपदी ने अपनी सास कुंती के इस फैसले को चुपचाप कैसे मंजूर कर लिया। उसकी ऐसी क्या मजबूरी थी? वह तो सौंदर्य की देवी थी। एक शक्तिशाली राज्य की राजकुमारी। मुझे यह भी काफी विचित्र लगा कि अर्जुन और उसके सखा कृष्ण ने भी यह अन्याय होने दिया। फिर यह सोचकर की महाभारत सिर्फ कथा ही तो है, मैंने इस प्रश्न पर सोचना बंद कर दिया।
लेकिन 36-37 साल पहले पढ़ा गया लेख तो एक जीती-जागती स्त्री के बारे में था, जिसके शायद तीन पति थे। तीनों सगे भाई थे और तीनों से उसके चार या पाँच बच्चे थे। लेख में बताया गया था कि बड़ा भाई ही सब बच्चों का पिता कहलाता है और भरा पूरा परिवार प्रेम से रहता है। लेख में इसे एक रिवाज-एक परंपरा बताकर बिना किसी निष्कर्ष के ऐसे ही छोड़ दिया गया था। बात आई-गई हो गई। हाल ही में मैंने 'न्यूयॉर्क टाइम्स' में छपी एक रिपोर्ट देखी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि हिमालय के एक दूरस्थ इलाके में एक ही स्त्री के कई पतियों के साथ रहने की परंपरा विलुप्त हो रही है।
यह रिपोर्ट ७० साल की एक वृद्धा बुद्धि देवी के बारे में थी, जिसने 14 साल की उम्र में अपने से छोटे उसी गाँव के एक किशोर से शादी की और जब उस किशोर का भाई बड़ा हो गया तो वह भी उसका पति बन गया। यह स्त्री आज विधवा भी है और सधवा भी। बड़ा भाई मर चुका है, मगर छोटा भाई जिंदा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि हिमालय की दूरस्थ घाटियों में बहुपति प्रथा शताब्दियों पुरानी है और इसे भौगोलिक, आर्थिक और मौसम से संबंधित जटिल समस्याओं के समाधान के रूप में देखा जाता रहा है।
इन लोगों के पास पहाड़ की ऊँचाइयों पर बहुत कम जमीन होती है जिस पर खेती करने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। परिवार में यदि बँटवारा होने लगे तो भाइयों के बच्चों के हिस्से में इतनी सी जमीन आएगी कि उस पर खेती करना मुश्किल होगा। इसलिए साझा जमीन ने भाइयों के बीच स्त्री को साझा करने का तर्क दिया होगा।
बुद्धि देवी ने संवाददाता को बताया कि हम काम करते थे और खाते थे, और बातों के लिए हमारे पास वक्त नहीं होता था। उसने कहा कि जब तीन भाइयों की एक ही पत्नी होगी तो तीनों शाम को एक ही घर में वापस आएँगे। वे घर की हर चीज में बराबर के हिस्सेदार हैं और सिर्फ उस स्त्री को ही यह पता होता है कि किस बच्चे का बाप कौन है लेकिन पिता सबसे बड़ा भाई ही कहलाता है। बाकी सब भाई चाचा ही कहलाते हैं, हालाँकि बच्चों को भी यह पता होता है कि उनका असली बाप कौन है। इस मामले में स्त्री ने जो कह दिया वही अंतिम होता है। कोई उसके फैसले पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता। उसके कारण सब बंध कर रहते हैं।
रिपोर्ट कहती है कि बहुपति की यह प्रथा आज खत्म हो रही है और लाहुल स्पीति के संबद्ध लोगों को इसका जरा भी मलाल नहीं है। वहाँ सड़कें बन गई हैं, स्कूल खुल गए हैं और आर्थिक सुधारों की बदौलत विकास का काम हुआ है। लोगों को रोजगार मिला है। आज की पीढ़ी इस बारे में सोचना तक नहीं चाहती है। और परिवार का हरेक भाई विवाह करता है और फिर औरों जैसा वैवाहिक जीवन जीता है।
इस परंपरा के पक्ष में कुछ भी कारण गिनाए जाते रहे हों, मगर यह परंपरा स्त्री को पुरुष की संपत्ति समझने का ही एक भयावह रूप है। यह स्त्री विरोधी तो है ही। भारत भर में कहीं भी सामान्य तौर पर बहुपति प्रथा नहीं है और आज यह संतोष की बात है कि हिमालय में शताब्दियों तक अपवाद स्वरूप जो होता रहा, वह भी खत्म हो रहा है।
यह एक प्रगतिशील घटनाक्रम है। इसी तरह हमारे यहाँ बहुपत्नी प्रथा भी सामान्य बात नहीं रही है। मुसलमानों को चार बीवियाँ रखने का हक जरूर है, मगर आमतौर पर ज्यादातर मुसलमान एक बीवी ही रखते हैं। अगर एक से ज्यादा बीवी रखने का अनुपात निकाला जाए तो हिंदुओं और मुसलमानों में शायद ही कोई अंतर मिले। दरअसल जितनी बुरी बहुपति-प्रथा है, उतनी ही बुरी बहुपत्नी प्रथा भी है। अतीत में राजाओं की अनेक रानियाँ जरूर होती थीं, मगर प्रजा की नहीं।
भारत आनेवाले विदेशी यात्रियों ने भारतीय परिवारों का जो चित्र खींचा है उसमें प्रायः एक ही पति और एक ही पत्नी वाले परिवार की उपस्थिति दिखाई देती है। ऐसा माना जाता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था वाले भारत में पुत्र की चाह का ही बोलबाला रहा है। वंश चले इसलिए बेटा जरूरी है। वह न रहे तो उसके विकल्प के लिए दूसरा, तीसरा और चौथा बेटा जरूरी है, फिर चाहे दो या तीन विवाह भी करने पड़ें। खेतिहर समाजों में भी बेटों की जरूरत सबसे ज्यादा होती है तो व्यापार में भी। इसलिए औद्योगिकीकरण से पहले परिवारों को तभी पूर्ण समझा जाता था, जब बेटा पैदा हो जाए।
धन और यश के साथ पुत्रेषणा भी जुड़ गई। आज जब हर क्षेत्र में लड़कियाँ लड़कों को चुनौती दे रही हैं तब भी बेटी पर बेटे को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति हमारे समाज में कम नहीं हो पा रही है। हर साल हजारों-लाखों बच्चियाँ तो पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हैं। हो सकता है विकास के साथ बेटी को बेटा समझने की मति विकसित हो जाए और एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो। पर अभी तो बेटे की चाह कम नहीं हुई है।
पर इस सवाल का तार्किक जवाब आज भी नहीं मिलता कि द्रोपदी को पाँच पतियों का अभिशाप क्यों झेलना पड़ा? द्रोपदी ने खुन पांडवों का वरण नहीं किया बल्कि यह कुंती की गहरी योजना का परिणाम था। आजकल ऐसे इतिहासकार भी हैं जो प्राचीन भारत को समझने के लिए महाभारत को भी एक सूत्र के रूप में देखते हैं। वे तर्क देते हैं कि जहाँ रामायण एक आदर्शवादी काव्यग्रंथ है, वहीं महाभारत में हमारा यथार्थवादी इतिहास झलकता है। मनुष्य जाति की ऐसी कौन सी प्रवृत्ति है जिसकी झलक महाभारत में नहीं मिलती? इसलिए यह संभव है कि जिसे हम एक विराट काव्यमय कथा के रूप में देखते-सुनते आएँ हो, उसमें सचमुच का इतिहास भी रहा हो।
बहरहाल, कोई भी सांसारिक पुरुष या कोई भी स्त्री कई पुरुषों से या कई स्त्रियों से एक साथ प्रेम नहीं कर सकती। यानी एक स्त्री एक से अधिक पतियों से समान प्रेम कर ही नहीं सकती। यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। इसीलए बहु पत्नी या बहु पति वाली व्यवस्था विवाह संस्था की एक विसंगति नहीं बल्कि विकृति के रूप में ही देखी जाएगी। आज के आधुनिक समाज में इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसीलिए न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट स्त्री जाति के लिए एक शुभ संकेत है।
तब तक मैंने महाभारत में द्रौपदी की कथा ही पढ़ी थी, जिसे अर्जुन ने स्वयंवर में जीता था और वह पाँचों पांडवों की पत्नी बनी थी। मुझे कुंती का यह फैसला बेहद गलत लगा था कि द्रौपदी पाँचों पांडवों की पत्नी होगी। मुझे इस बात से भी धक्का लगा कि द्रौपदी ने अपनी सास कुंती के इस फैसले को चुपचाप कैसे मंजूर कर लिया। उसकी ऐसी क्या मजबूरी थी? वह तो सौंदर्य की देवी थी। एक शक्तिशाली राज्य की राजकुमारी। मुझे यह भी काफी विचित्र लगा कि अर्जुन और उसके सखा कृष्ण ने भी यह अन्याय होने दिया। फिर यह सोचकर की महाभारत सिर्फ कथा ही तो है, मैंने इस प्रश्न पर सोचना बंद कर दिया।
लेकिन 36-37 साल पहले पढ़ा गया लेख तो एक जीती-जागती स्त्री के बारे में था, जिसके शायद तीन पति थे। तीनों सगे भाई थे और तीनों से उसके चार या पाँच बच्चे थे। लेख में बताया गया था कि बड़ा भाई ही सब बच्चों का पिता कहलाता है और भरा पूरा परिवार प्रेम से रहता है। लेख में इसे एक रिवाज-एक परंपरा बताकर बिना किसी निष्कर्ष के ऐसे ही छोड़ दिया गया था। बात आई-गई हो गई। हाल ही में मैंने 'न्यूयॉर्क टाइम्स' में छपी एक रिपोर्ट देखी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि हिमालय के एक दूरस्थ इलाके में एक ही स्त्री के कई पतियों के साथ रहने की परंपरा विलुप्त हो रही है।
यह रिपोर्ट ७० साल की एक वृद्धा बुद्धि देवी के बारे में थी, जिसने 14 साल की उम्र में अपने से छोटे उसी गाँव के एक किशोर से शादी की और जब उस किशोर का भाई बड़ा हो गया तो वह भी उसका पति बन गया। यह स्त्री आज विधवा भी है और सधवा भी। बड़ा भाई मर चुका है, मगर छोटा भाई जिंदा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि हिमालय की दूरस्थ घाटियों में बहुपति प्रथा शताब्दियों पुरानी है और इसे भौगोलिक, आर्थिक और मौसम से संबंधित जटिल समस्याओं के समाधान के रूप में देखा जाता रहा है।
इन लोगों के पास पहाड़ की ऊँचाइयों पर बहुत कम जमीन होती है जिस पर खेती करने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। परिवार में यदि बँटवारा होने लगे तो भाइयों के बच्चों के हिस्से में इतनी सी जमीन आएगी कि उस पर खेती करना मुश्किल होगा। इसलिए साझा जमीन ने भाइयों के बीच स्त्री को साझा करने का तर्क दिया होगा।
बुद्धि देवी ने संवाददाता को बताया कि हम काम करते थे और खाते थे, और बातों के लिए हमारे पास वक्त नहीं होता था। उसने कहा कि जब तीन भाइयों की एक ही पत्नी होगी तो तीनों शाम को एक ही घर में वापस आएँगे। वे घर की हर चीज में बराबर के हिस्सेदार हैं और सिर्फ उस स्त्री को ही यह पता होता है कि किस बच्चे का बाप कौन है लेकिन पिता सबसे बड़ा भाई ही कहलाता है। बाकी सब भाई चाचा ही कहलाते हैं, हालाँकि बच्चों को भी यह पता होता है कि उनका असली बाप कौन है। इस मामले में स्त्री ने जो कह दिया वही अंतिम होता है। कोई उसके फैसले पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता। उसके कारण सब बंध कर रहते हैं।
रिपोर्ट कहती है कि बहुपति की यह प्रथा आज खत्म हो रही है और लाहुल स्पीति के संबद्ध लोगों को इसका जरा भी मलाल नहीं है। वहाँ सड़कें बन गई हैं, स्कूल खुल गए हैं और आर्थिक सुधारों की बदौलत विकास का काम हुआ है। लोगों को रोजगार मिला है। आज की पीढ़ी इस बारे में सोचना तक नहीं चाहती है। और परिवार का हरेक भाई विवाह करता है और फिर औरों जैसा वैवाहिक जीवन जीता है।
इस परंपरा के पक्ष में कुछ भी कारण गिनाए जाते रहे हों, मगर यह परंपरा स्त्री को पुरुष की संपत्ति समझने का ही एक भयावह रूप है। यह स्त्री विरोधी तो है ही। भारत भर में कहीं भी सामान्य तौर पर बहुपति प्रथा नहीं है और आज यह संतोष की बात है कि हिमालय में शताब्दियों तक अपवाद स्वरूप जो होता रहा, वह भी खत्म हो रहा है।
यह एक प्रगतिशील घटनाक्रम है। इसी तरह हमारे यहाँ बहुपत्नी प्रथा भी सामान्य बात नहीं रही है। मुसलमानों को चार बीवियाँ रखने का हक जरूर है, मगर आमतौर पर ज्यादातर मुसलमान एक बीवी ही रखते हैं। अगर एक से ज्यादा बीवी रखने का अनुपात निकाला जाए तो हिंदुओं और मुसलमानों में शायद ही कोई अंतर मिले। दरअसल जितनी बुरी बहुपति-प्रथा है, उतनी ही बुरी बहुपत्नी प्रथा भी है। अतीत में राजाओं की अनेक रानियाँ जरूर होती थीं, मगर प्रजा की नहीं।
भारत आनेवाले विदेशी यात्रियों ने भारतीय परिवारों का जो चित्र खींचा है उसमें प्रायः एक ही पति और एक ही पत्नी वाले परिवार की उपस्थिति दिखाई देती है। ऐसा माना जाता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था वाले भारत में पुत्र की चाह का ही बोलबाला रहा है। वंश चले इसलिए बेटा जरूरी है। वह न रहे तो उसके विकल्प के लिए दूसरा, तीसरा और चौथा बेटा जरूरी है, फिर चाहे दो या तीन विवाह भी करने पड़ें। खेतिहर समाजों में भी बेटों की जरूरत सबसे ज्यादा होती है तो व्यापार में भी। इसलिए औद्योगिकीकरण से पहले परिवारों को तभी पूर्ण समझा जाता था, जब बेटा पैदा हो जाए।
धन और यश के साथ पुत्रेषणा भी जुड़ गई। आज जब हर क्षेत्र में लड़कियाँ लड़कों को चुनौती दे रही हैं तब भी बेटी पर बेटे को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति हमारे समाज में कम नहीं हो पा रही है। हर साल हजारों-लाखों बच्चियाँ तो पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हैं। हो सकता है विकास के साथ बेटी को बेटा समझने की मति विकसित हो जाए और एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो। पर अभी तो बेटे की चाह कम नहीं हुई है।
पर इस सवाल का तार्किक जवाब आज भी नहीं मिलता कि द्रोपदी को पाँच पतियों का अभिशाप क्यों झेलना पड़ा? द्रोपदी ने खुन पांडवों का वरण नहीं किया बल्कि यह कुंती की गहरी योजना का परिणाम था। आजकल ऐसे इतिहासकार भी हैं जो प्राचीन भारत को समझने के लिए महाभारत को भी एक सूत्र के रूप में देखते हैं। वे तर्क देते हैं कि जहाँ रामायण एक आदर्शवादी काव्यग्रंथ है, वहीं महाभारत में हमारा यथार्थवादी इतिहास झलकता है। मनुष्य जाति की ऐसी कौन सी प्रवृत्ति है जिसकी झलक महाभारत में नहीं मिलती? इसलिए यह संभव है कि जिसे हम एक विराट काव्यमय कथा के रूप में देखते-सुनते आएँ हो, उसमें सचमुच का इतिहास भी रहा हो।
बहरहाल, कोई भी सांसारिक पुरुष या कोई भी स्त्री कई पुरुषों से या कई स्त्रियों से एक साथ प्रेम नहीं कर सकती। यानी एक स्त्री एक से अधिक पतियों से समान प्रेम कर ही नहीं सकती। यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। इसीलए बहु पत्नी या बहु पति वाली व्यवस्था विवाह संस्था की एक विसंगति नहीं बल्कि विकृति के रूप में ही देखी जाएगी। आज के आधुनिक समाज में इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसीलिए न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट स्त्री जाति के लिए एक शुभ संकेत है।