गुरुजी ने भजन समाप्त किया और आवाज लगाई बेटा भोला - 'मैं पंडिताई करने चार-पाँच दिन के लिए पास के गाँव में जा रहा हूँ, तब तक तुम अपने 'बाल-गोपाल' का ध्यान रखना, अपने साथ उन्हें भी नहला देना और जो कुछ अपने लिए बनाओ, उसका भोग उन्हें भी लगा देना।'
भोला ने कहा - 'जी गुरुजी! भोला को ऐसा समझाकर गुरुजी दूसरे गाँव में पंडिताई करने चले गए। दूसरे दिन सुबह जब भोला, गुरुजी की गायों को चराने के लिए जंगल ले जाने लगा तो उसे याद आया कि गुरुजी ने कहा था - 'बाल-गोपाल को भी नहलाना और भोग लगाना।' उसने सोचा गायों को जंगल में छोड़कर गोपाल को नहलाने और भोजन कराना इतनी दूर फिर से कौन आएगा? फिर बाल-गोपाल भी यहाँ अकेले रह जाएँगे, चलो उन्हें भी साथ लिए चलते हैं।
ऐसा सोचकर भोला ने एक पोटली में चार गक्कड़ (मोटी रोटी) का आटा स्वयं के लिए तथा दो गक्कड़ का आटा बाल-गोपाल के लिए लिया, साथ में थोड़ा सा गुड़ रखकर फिर उसी पोटली में बाल-गोपाल की मनोहर छवि वाली पीतल की मूर्ति भी रख ली और गौएं लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा।
भोला दस-बारह वर्ष का, नाम के अनुरूप भोला-भाला ग्रामीण बालक था। पंडितजी गाँव के मंदिर में पूजन करते और भोला उनकी गौएं चराता, मस्त रहता, यही उसका काम था। जंगल में पहुँचकर भोला ने पास ही बहने वाली नदी के किनारे गायों को चरने के लिए छोड़ दिया।
फिर पोटली से 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को निकालकर बोला - जब तक मैं गौएं चराता हूँ तब तक तुम अच्छी तरह नदी में स्नान कर लो। जब मैं भोजन तैयार कर लूँगा, तब तुम्हें भी आवाज लगा दूँगा, आकर भोजन कर लेना।'
ऐसा कहकर भोला ने 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को नदी के किनारे रख दिया और गौएं चराने में मस्त हो गया। दोपहर होने पर भोला ने जल्दी से नदी में दो-तीन डुबकी लगाई और अंगीठी जलाकर गक्कड़ बनाने में जुट गया। भोजन तैयार कर उसने एक पत्तल पर दो गक्कड़ तथा थोड़ा सा गुड़, 'बाल-गोपाल' के खाने के लिए रख दिया तथा चार गक्कड़ और थोड़ा सा गुड़ अपने लिए एक पत्तल पर रख लिया और फिर आवाज लगाई - 'बाल-गोपाल जल्दी आओ, बहुत नहा लिया, भोजन तैयार है।' मगर बाल-गोपाल नहीं आए, भोला ने फिर आवाज लगाई - 'भैया गोपाल... जल्दी आओ... मुझे बहुत जोर की भूख लग रही है।'
कई बार बुलाने पर भी जब बाल-गोपाल भोजन करने नहीं आए, तब भोला को गुस्सा आ गया, उसे जोर की भूख लगी थी और बाल-गोपाल आवाज लगाने पर भी भोजन करने के लिए नहीं आ रहे थे। इस बार भोला ने थोड़े गुस्से में आवाज लगाई - 'गोपाल आते हो या मैं डंडा लेकर आऊँ।' मगर गोपाल तब भी नहीं आए। अब तो भोला का भोला-सा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
वह डंडा लेकर जैसे ही नदी किनारे की ओर बढ़ा, बाल-गोपाल झट नदी से बाहर निकलते हुए बोले - भैया भोला, मारना नहीं, मैं आ गया, दरअसल मैं तैरते-तैरते नदी में काफी दूर तक निकल गया था। वापस लौटने में देर हो गई।' भोला का गुस्सा शांत हो गया,उसने कहा - 'ठीक है, अब कल से नदी में दूर तक नहीं जाना, बीच में पानी काफी गहरा है।'
फिर दोनों भोजन करने बैठ गए। बाल-गोपाल ने जल्दी से अपने हिस्से की दोनों गक्कड़ें और गुड़ खा लिया फिर भोला से बोले - 'भैया, और दो, बड़े जोर की भूख लगी है।' भोला ने दो गक्कड़ें और थोड़ा गुड़ बाल-गोपाल को और दे दिया। उसके हिस्से में केवल दो गक्कड़ें ही आई। भोला को आज आधे पेट भोजन से ही संतोष करना पड़ा। वह यह सोचकर छह गक्कड़ों का आटा लाया था कि बाल-गोपाल छोटे हैं, अधिक से अधिक दो गक्कड़ें ही खाएँगे, चार उसके लिए हो जाएँगी। ठीक है कल से अधिक आटा ले आऊँगा।
खा-पीकर बाल-गोपाल बोले - 'भैया भोला, अब तुम आराम करो, गौएं मैं चराता हूँ। भोला ने कहा - 'नहीं, तुम छोटे हो, गाएँ तुमसे नहीं संभलेंगी, यहाँ-वहाँ भाग जाएँगी।'
बाल-गोपाल हँसकर बोले -भैया भोला, तुम निश्चिंत रहो, मुझे गायों को चराना आता है, मैं सब संभाल लूँगा।'
भोला ने कहा - 'फिर ठीक है, अगर न संभले तो मुझे आवाज लगा देना, मैं यहाँ लेटा हूँ।'
संध्या को बाल-गोपाल ने भोला को जगाया - 'भैया-भोला उठो, संध्या हो गई घर नहीं चलना?'
भोला हड़बड़ाकर उठ बैठा। अब तक वह बड़ी चैन और शांति की नींद सो रहा था। गायों को इकट्ठा कर वह गोपाल से बोला - 'तुम छोटे हो, पैदल चलने से थक जाओगे, मेरे कंधों पर बैठ जाओ, मैं लेता चलूँगा।'
गोपाल ने कहा - नहीं भैया, मैं पोटली में बैठकर ही चलूँगा। 'भोला ने कहा - फिर ठीक है।'
भोला कंधे पर पोटली लटकाए, गायों को हाँकता हुआ घर वापस आ गया।
बाल-गोपाल को मंदिर में बैठा, गायों को बाँधने, चरवन डालने में लग गया। भोला ने शाम का भोजन बनाया और बाल-गोपाल को आवाज लगाई, इस बार वे बड़े जल्दी भोजन करने आ गए। इस बार भोला ने गोपाल और अपने लिए चार-चार गक्कड़ें बनाई किंतु बाल-गोपाल जब भोजन करने बैठे तो चार की जगह छह गक्कड़ें खा गए, बोले - भोला भैया, तुम्हारे गुरुजी मुझे बालक समझकर बहुत थोड़ा सा भोजन खाने के लिए देते हैं जिससे मैं भूखा रह जाता हूँ। भोला को शेष बची दो गक्कड़ें खाकर फिर आधे पेट भोजन करके उठा था। दूसरे दिन सुबह भोला ने कुछ अधिक ही आटा और गुड़ अपनी पोटली में रख लिया परंतु दोपहर में वह फिर भूखा रह गया।
दोपहर तक बाल-गोपाल नदी में नहाते रहे, बुलाने पर जल्दी से आए और दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सब गक्कड़ें खा गए। भोला को फिर दो ही गक्कड़ों से संतोष करना पड़ा
भोला भोजन कर सो गया और बाल-गोपाल दिन भर गौएं चराते रहे। शाम को उन्होंने भोला को जगाया, तब भोला गायों को लेकर घर आया। फिर तो यह प्रतिदिन का नियम बन गया। भोला जंगल जाता, बाल-गोपाल दोपहर तक नदी में नहाते, बुलाने पर दोपहर में नदी से निकलकर आते और दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सारी गक्कड़ें खा जाते, भोला को वही दो की दो गक्कड़ें खाने को मिलती।
वह प्रतिदिन अधिक आटा लाता, गक्कड़ें भी अधिक बनाता परंतु फिर भी उसे खाने में दो ही गक्कड़ें खाने को मिलती। वह प्रतिदिन अधिक आटा लाता, गक्कड़ें भी अधिक बनाता परंतु फिर भी उसे खाने में दो गक्कड़ें ही मिल पातीं, बाकी सब बाल-गोपाल खा जाते, बस एक आराम भोला को मिला, दोपहर वह चैन की नींद सोता और बाल-गोपाल गौएं चराते। भोला को बाल-गोपाल के साथ बड़ा आनंद और सुख मिलता।
इस प्रकार पाँच दिन व्यतीत हो गए। छठवें दिन गुरुजी आ गए। आते ही उन्होंने भोला से पूछा - 'क्यों भोला सब कुछ ठीक तो है न? मेरे बाल-गोपाल को ठीक से नहलाया-खिलाया कि नहीं?'
भोला ने कहा - गुरुजी मैं तो तुम्हारे बाल-गोपाल से तंग आ गया। मैं अपने साथ उन्हें जंगल क्या ले गया, वे वहाँ नदी में मना करने के बाद भी दोपहर तक नहाते और दोपहर में आकर दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सारी की सारी गक्कड़ें खा जाते, मुझे केवल दो ही गक्कड़ें खाने को मिलतीं, शाम को भी यही हाल रहता। मैं तो पाँच दिन से आधे पेट ही भोजन कर रहा हूँ।'
भोला की बात सुनकर गुरुजी को विश्वास ही नहीं हुआ। बोले - भोला क्या कह रहे हो, कहीं ऐसा भी होता है?'
भोला ने कहा - 'गुरुजी पाँच दिनों से ऐसा ही हो रहा है। आपका दिया सारा आटा और गुड़ समाप्त हो गया है। यदि आप आज न आते तब गाँव वालों से सुबह के लिए आटा-गुड़ माँगकर लाना पड़ता।'
गुरुजी बोले मुझे तो विश्वास ही नहीं होता।' भोला ने कहा - आप सुबह मेरे साथ जंगल चलना, मैं आपको सब कुछ आपकी आँखों से दिखा दूँगा।'
अगले दिन भोला गठरी में आटा-गुड़ रखकर तथा बाल-गोपाल को पोटली में बिठाकर फिर जंगल में गौएं चराने गया। पीछे-पीछे गुरुजी भी उसके साथ गए। भोला ने प्रतिदिन की तरह बाल-गोपाल को नहाने के लिए नदी में छोडा तथा गुरुजी के पास आकर बोला - आप दोपहर होने का इंतजार कीजिए। जब मैं भोजन बना लूँगा तब गोपाल को भोजन के लिए टेर लगाऊँगा, आप इस पेड़ के पीछे छिपकर सब कुछ अपनी आँखों से देख लेना।
दोपहर होने पर भोला ने जल्दी से स्नान कर, गक्कड़ बनाना शुरू कर दिया, गक्कड़ बनाना शुरू कर दिया, जब गक्कड़ बनकर तैयार हो गई तब उसने प्रतिदिन की तरह आवाज लगाई। बाल-गोपाल जल्दी आओ, भोजन तैयार है। गोपाल झट से गक्कड़ और गुड़ का भोजन करने आ बैठे।
उन्होंने आज भी दो गक्कड़ें भोला के लिए छोड़ी और बाकी सब वे खा गए। बाल-गोपाल भोला के साथ बैठे भोजन कर रहे थे, वे भोला को तो दिखाई दे रहे थे परंतु पेड़ के पीछे छिपे गुरु जी को दिखाई नहीं दे रहे थे। गुरुजी व्याकुलता से उन्हें चारों ओर नजर घुमाकर ढूँढ़ रहे थे। परंतु बाल-गोपाल कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। जब गुरु जी का धैर्य जवाब दे गया तब वे भोला के पास आकर बोले - 'बेटा भोला, मुझे तो कहीं नजर नहीं आ रहे तुम्हारे बाल-गोपाल।'
भोला ने कहा - 'गुरुजी, बाल-गोपाल तो यहीं बैठे हुए हैं।' मगर बेटा मुझे तो दिखाई नहीं दे रहे।' गुरुजी ने कहा।
अब तो भोला को गुस्सा आ गया। उसने कहा 'क्यों बाल-गोपाल, यह आँख-मिचौली का खेल छोड़कर गुरुजी के सामने आते हो या मैं डंडा उठाऊँ।' तब बाल-गोपाल कहने लगे - अरे! नहीं भोला भैया, मारना नहीं, मैं पानी पीकर अभी आता हूँ।' भोला ने कहा 'ठीक है, जल्दी आओ।'
गोपाल जब नदी से पानी पीकर लौटे तब उनके रूप को देखकर भोला भी चक्कर में पड़ गया। सिर पर मोर मुकुट, हाथ में बाँसुरी, तन पर पीताम्बर अधरों पर मधुर मुस्कान।
गुरुजी झट से दौड़कर अपने प्रभु के चरणों में गिर पड़े, नेत्रों से अश्रुओं की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी। कंठ अवरुद्ध हो गया, चेहरे पर अपूर्व हर्ष। गुरुजी चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे और बाल-गोपाल खड़े-खड़े मंद-मंद मधुर मुस्कान बिखेर रहे थे। अंत में गुरुजी के अवरुद्ध कंठ से बोल फूटे -
'मोहन प्रेम बिना नहीं मिलते,
चाहे कर लो कोटि उपाय।'
भोला दूर खड़ा सोच रहा था ये तो प्रतिदिन वाले बाल-गोपाल नहीं हैं, बाल-गोपाल ने आज यह कौनसा नया रूप धारण कर लिया है?
जगत के आधार, परमपिता परमेश्वर, परब्रह्म जो बड़े-बड़े ज्ञानियों और ध्यानियों तथा भक्तों को भी स्वप्न में एक झलक नहीं दिखाते वे आज भोला के भोलेपन पर रीझकर, प्रेमवश उसके समक्ष साक्षात् खड़े थे। धन्य है भोले बालक का यह निश्छल प्रेम।
साभार : देवपुत्र
भोला ने कहा - 'जी गुरुजी! भोला को ऐसा समझाकर गुरुजी दूसरे गाँव में पंडिताई करने चले गए। दूसरे दिन सुबह जब भोला, गुरुजी की गायों को चराने के लिए जंगल ले जाने लगा तो उसे याद आया कि गुरुजी ने कहा था - 'बाल-गोपाल को भी नहलाना और भोग लगाना।' उसने सोचा गायों को जंगल में छोड़कर गोपाल को नहलाने और भोजन कराना इतनी दूर फिर से कौन आएगा? फिर बाल-गोपाल भी यहाँ अकेले रह जाएँगे, चलो उन्हें भी साथ लिए चलते हैं।
ऐसा सोचकर भोला ने एक पोटली में चार गक्कड़ (मोटी रोटी) का आटा स्वयं के लिए तथा दो गक्कड़ का आटा बाल-गोपाल के लिए लिया, साथ में थोड़ा सा गुड़ रखकर फिर उसी पोटली में बाल-गोपाल की मनोहर छवि वाली पीतल की मूर्ति भी रख ली और गौएं लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा।
भोला दस-बारह वर्ष का, नाम के अनुरूप भोला-भाला ग्रामीण बालक था। पंडितजी गाँव के मंदिर में पूजन करते और भोला उनकी गौएं चराता, मस्त रहता, यही उसका काम था। जंगल में पहुँचकर भोला ने पास ही बहने वाली नदी के किनारे गायों को चरने के लिए छोड़ दिया।
फिर पोटली से 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को निकालकर बोला - जब तक मैं गौएं चराता हूँ तब तक तुम अच्छी तरह नदी में स्नान कर लो। जब मैं भोजन तैयार कर लूँगा, तब तुम्हें भी आवाज लगा दूँगा, आकर भोजन कर लेना।'
ऐसा कहकर भोला ने 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को नदी के किनारे रख दिया और गौएं चराने में मस्त हो गया। दोपहर होने पर भोला ने जल्दी से नदी में दो-तीन डुबकी लगाई और अंगीठी जलाकर गक्कड़ बनाने में जुट गया। भोजन तैयार कर उसने एक पत्तल पर दो गक्कड़ तथा थोड़ा सा गुड़, 'बाल-गोपाल' के खाने के लिए रख दिया तथा चार गक्कड़ और थोड़ा सा गुड़ अपने लिए एक पत्तल पर रख लिया और फिर आवाज लगाई - 'बाल-गोपाल जल्दी आओ, बहुत नहा लिया, भोजन तैयार है।' मगर बाल-गोपाल नहीं आए, भोला ने फिर आवाज लगाई - 'भैया गोपाल... जल्दी आओ... मुझे बहुत जोर की भूख लग रही है।'
कई बार बुलाने पर भी जब बाल-गोपाल भोजन करने नहीं आए, तब भोला को गुस्सा आ गया, उसे जोर की भूख लगी थी और बाल-गोपाल आवाज लगाने पर भी भोजन करने के लिए नहीं आ रहे थे। इस बार भोला ने थोड़े गुस्से में आवाज लगाई - 'गोपाल आते हो या मैं डंडा लेकर आऊँ।' मगर गोपाल तब भी नहीं आए। अब तो भोला का भोला-सा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
वह डंडा लेकर जैसे ही नदी किनारे की ओर बढ़ा, बाल-गोपाल झट नदी से बाहर निकलते हुए बोले - भैया भोला, मारना नहीं, मैं आ गया, दरअसल मैं तैरते-तैरते नदी में काफी दूर तक निकल गया था। वापस लौटने में देर हो गई।' भोला का गुस्सा शांत हो गया,उसने कहा - 'ठीक है, अब कल से नदी में दूर तक नहीं जाना, बीच में पानी काफी गहरा है।'
फिर दोनों भोजन करने बैठ गए। बाल-गोपाल ने जल्दी से अपने हिस्से की दोनों गक्कड़ें और गुड़ खा लिया फिर भोला से बोले - 'भैया, और दो, बड़े जोर की भूख लगी है।' भोला ने दो गक्कड़ें और थोड़ा गुड़ बाल-गोपाल को और दे दिया। उसके हिस्से में केवल दो गक्कड़ें ही आई। भोला को आज आधे पेट भोजन से ही संतोष करना पड़ा। वह यह सोचकर छह गक्कड़ों का आटा लाया था कि बाल-गोपाल छोटे हैं, अधिक से अधिक दो गक्कड़ें ही खाएँगे, चार उसके लिए हो जाएँगी। ठीक है कल से अधिक आटा ले आऊँगा।
खा-पीकर बाल-गोपाल बोले - 'भैया भोला, अब तुम आराम करो, गौएं मैं चराता हूँ। भोला ने कहा - 'नहीं, तुम छोटे हो, गाएँ तुमसे नहीं संभलेंगी, यहाँ-वहाँ भाग जाएँगी।'
बाल-गोपाल हँसकर बोले -भैया भोला, तुम निश्चिंत रहो, मुझे गायों को चराना आता है, मैं सब संभाल लूँगा।'
भोला ने कहा - 'फिर ठीक है, अगर न संभले तो मुझे आवाज लगा देना, मैं यहाँ लेटा हूँ।'
संध्या को बाल-गोपाल ने भोला को जगाया - 'भैया-भोला उठो, संध्या हो गई घर नहीं चलना?'
भोला हड़बड़ाकर उठ बैठा। अब तक वह बड़ी चैन और शांति की नींद सो रहा था। गायों को इकट्ठा कर वह गोपाल से बोला - 'तुम छोटे हो, पैदल चलने से थक जाओगे, मेरे कंधों पर बैठ जाओ, मैं लेता चलूँगा।'
गोपाल ने कहा - नहीं भैया, मैं पोटली में बैठकर ही चलूँगा। 'भोला ने कहा - फिर ठीक है।'
भोला कंधे पर पोटली लटकाए, गायों को हाँकता हुआ घर वापस आ गया।
बाल-गोपाल को मंदिर में बैठा, गायों को बाँधने, चरवन डालने में लग गया। भोला ने शाम का भोजन बनाया और बाल-गोपाल को आवाज लगाई, इस बार वे बड़े जल्दी भोजन करने आ गए। इस बार भोला ने गोपाल और अपने लिए चार-चार गक्कड़ें बनाई किंतु बाल-गोपाल जब भोजन करने बैठे तो चार की जगह छह गक्कड़ें खा गए, बोले - भोला भैया, तुम्हारे गुरुजी मुझे बालक समझकर बहुत थोड़ा सा भोजन खाने के लिए देते हैं जिससे मैं भूखा रह जाता हूँ। भोला को शेष बची दो गक्कड़ें खाकर फिर आधे पेट भोजन करके उठा था। दूसरे दिन सुबह भोला ने कुछ अधिक ही आटा और गुड़ अपनी पोटली में रख लिया परंतु दोपहर में वह फिर भूखा रह गया।
दोपहर तक बाल-गोपाल नदी में नहाते रहे, बुलाने पर जल्दी से आए और दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सब गक्कड़ें खा गए। भोला को फिर दो ही गक्कड़ों से संतोष करना पड़ा
भोला भोजन कर सो गया और बाल-गोपाल दिन भर गौएं चराते रहे। शाम को उन्होंने भोला को जगाया, तब भोला गायों को लेकर घर आया। फिर तो यह प्रतिदिन का नियम बन गया। भोला जंगल जाता, बाल-गोपाल दोपहर तक नदी में नहाते, बुलाने पर दोपहर में नदी से निकलकर आते और दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सारी गक्कड़ें खा जाते, भोला को वही दो की दो गक्कड़ें खाने को मिलती।
वह प्रतिदिन अधिक आटा लाता, गक्कड़ें भी अधिक बनाता परंतु फिर भी उसे खाने में दो ही गक्कड़ें खाने को मिलती। वह प्रतिदिन अधिक आटा लाता, गक्कड़ें भी अधिक बनाता परंतु फिर भी उसे खाने में दो गक्कड़ें ही मिल पातीं, बाकी सब बाल-गोपाल खा जाते, बस एक आराम भोला को मिला, दोपहर वह चैन की नींद सोता और बाल-गोपाल गौएं चराते। भोला को बाल-गोपाल के साथ बड़ा आनंद और सुख मिलता।
इस प्रकार पाँच दिन व्यतीत हो गए। छठवें दिन गुरुजी आ गए। आते ही उन्होंने भोला से पूछा - 'क्यों भोला सब कुछ ठीक तो है न? मेरे बाल-गोपाल को ठीक से नहलाया-खिलाया कि नहीं?'
भोला ने कहा - गुरुजी मैं तो तुम्हारे बाल-गोपाल से तंग आ गया। मैं अपने साथ उन्हें जंगल क्या ले गया, वे वहाँ नदी में मना करने के बाद भी दोपहर तक नहाते और दोपहर में आकर दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सारी की सारी गक्कड़ें खा जाते, मुझे केवल दो ही गक्कड़ें खाने को मिलतीं, शाम को भी यही हाल रहता। मैं तो पाँच दिन से आधे पेट ही भोजन कर रहा हूँ।'
भोला की बात सुनकर गुरुजी को विश्वास ही नहीं हुआ। बोले - भोला क्या कह रहे हो, कहीं ऐसा भी होता है?'
भोला ने कहा - 'गुरुजी पाँच दिनों से ऐसा ही हो रहा है। आपका दिया सारा आटा और गुड़ समाप्त हो गया है। यदि आप आज न आते तब गाँव वालों से सुबह के लिए आटा-गुड़ माँगकर लाना पड़ता।'
गुरुजी बोले मुझे तो विश्वास ही नहीं होता।' भोला ने कहा - आप सुबह मेरे साथ जंगल चलना, मैं आपको सब कुछ आपकी आँखों से दिखा दूँगा।'
अगले दिन भोला गठरी में आटा-गुड़ रखकर तथा बाल-गोपाल को पोटली में बिठाकर फिर जंगल में गौएं चराने गया। पीछे-पीछे गुरुजी भी उसके साथ गए। भोला ने प्रतिदिन की तरह बाल-गोपाल को नहाने के लिए नदी में छोडा तथा गुरुजी के पास आकर बोला - आप दोपहर होने का इंतजार कीजिए। जब मैं भोजन बना लूँगा तब गोपाल को भोजन के लिए टेर लगाऊँगा, आप इस पेड़ के पीछे छिपकर सब कुछ अपनी आँखों से देख लेना।
दोपहर होने पर भोला ने जल्दी से स्नान कर, गक्कड़ बनाना शुरू कर दिया, गक्कड़ बनाना शुरू कर दिया, जब गक्कड़ बनकर तैयार हो गई तब उसने प्रतिदिन की तरह आवाज लगाई। बाल-गोपाल जल्दी आओ, भोजन तैयार है। गोपाल झट से गक्कड़ और गुड़ का भोजन करने आ बैठे।
उन्होंने आज भी दो गक्कड़ें भोला के लिए छोड़ी और बाकी सब वे खा गए। बाल-गोपाल भोला के साथ बैठे भोजन कर रहे थे, वे भोला को तो दिखाई दे रहे थे परंतु पेड़ के पीछे छिपे गुरु जी को दिखाई नहीं दे रहे थे। गुरुजी व्याकुलता से उन्हें चारों ओर नजर घुमाकर ढूँढ़ रहे थे। परंतु बाल-गोपाल कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। जब गुरु जी का धैर्य जवाब दे गया तब वे भोला के पास आकर बोले - 'बेटा भोला, मुझे तो कहीं नजर नहीं आ रहे तुम्हारे बाल-गोपाल।'
भोला ने कहा - 'गुरुजी, बाल-गोपाल तो यहीं बैठे हुए हैं।' मगर बेटा मुझे तो दिखाई नहीं दे रहे।' गुरुजी ने कहा।
अब तो भोला को गुस्सा आ गया। उसने कहा 'क्यों बाल-गोपाल, यह आँख-मिचौली का खेल छोड़कर गुरुजी के सामने आते हो या मैं डंडा उठाऊँ।' तब बाल-गोपाल कहने लगे - अरे! नहीं भोला भैया, मारना नहीं, मैं पानी पीकर अभी आता हूँ।' भोला ने कहा 'ठीक है, जल्दी आओ।'
गोपाल जब नदी से पानी पीकर लौटे तब उनके रूप को देखकर भोला भी चक्कर में पड़ गया। सिर पर मोर मुकुट, हाथ में बाँसुरी, तन पर पीताम्बर अधरों पर मधुर मुस्कान।
गुरुजी झट से दौड़कर अपने प्रभु के चरणों में गिर पड़े, नेत्रों से अश्रुओं की अविरल धारा प्रवाहित होने लगी। कंठ अवरुद्ध हो गया, चेहरे पर अपूर्व हर्ष। गुरुजी चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे और बाल-गोपाल खड़े-खड़े मंद-मंद मधुर मुस्कान बिखेर रहे थे। अंत में गुरुजी के अवरुद्ध कंठ से बोल फूटे -
'मोहन प्रेम बिना नहीं मिलते,
चाहे कर लो कोटि उपाय।'
भोला दूर खड़ा सोच रहा था ये तो प्रतिदिन वाले बाल-गोपाल नहीं हैं, बाल-गोपाल ने आज यह कौनसा नया रूप धारण कर लिया है?
जगत के आधार, परमपिता परमेश्वर, परब्रह्म जो बड़े-बड़े ज्ञानियों और ध्यानियों तथा भक्तों को भी स्वप्न में एक झलक नहीं दिखाते वे आज भोला के भोलेपन पर रीझकर, प्रेमवश उसके समक्ष साक्षात् खड़े थे। धन्य है भोले बालक का यह निश्छल प्रेम।
साभार : देवपुत्र