सोमवार, 30 अगस्त 2010

जीवन में क्यों जरूरी है गुरु?

आज भी कई लोगों के लिए यह सवाल कायम है कि कोई किसी संत को गुरु क्यों बनाता है। आज के अध्यात्मिक जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखकर संतों के प्रति आम आदमी के मन में न केवल श्रद्धा कम हुई है बल्कि संतों के प्रति नजरिया भी बदला है। फिर क्यों गुरु बनाना जरूरी है? दरअसल इसके पीछे हमारी शांति की तलाश होती है। भौतिक जीवन में सफलता तो मिल जाती है लेकिन उसके साथ नहीं मिलती है तो बस शांति।

इसी शांति की तलाश को कोई अध्यात्मिक गुरु पूरा कर सकता है। सांसारिक जीवन में सफलता के साथ शांति और आध्यात्मिक जीवन में उपलब्धि की स्पष्टता गुरु के द्वारा आती है। इसी विचार के कारण लोग साधु संतों के पीछे पड़े रहते हैं। लोग समझते हैं जीवन में गुरु आएं, संतों से मिलना हुआ और काम हो गया। यह जल्दबाजी गुरु-शिष्य के संबंधों के लिए नुकसान दायक है। यह रिश्ता बड़ा नाजुक है। परमात्मा को पाने के मार्ग का गुरु एक ट्रेफिक सिग्नल है। लोगों ने यातायात संकेतों को ही राह मान लिया, कई जल्दबाजों ने तो इसे ही मंजिल की घोषणा में बदल दिया। भगवान महावीर स्वामी ने एक जगह सुन्दर बात कही है च्च्मार्ग पर चलो तो मार्ग फल अवश्य मिलेगाज्ज् एक सूत्र के माध्यम से उन्होंने मार्ग को उपाय और मार्गफल को निर्वाण बताया है।
दंसणणाण चरित्राणि, मोक्खमग्गो त्रि सेविदव्वाणि साधुहि इदं भणिदं, तेहिं दु बन्धो व मोक्खो वा|
इसका अर्थ है दर्शन, ज्ञान और चरित्र मोक्ष का मार्ग है। इनका आचरण साधु पुरुषों को करना चाहिए। स्वाश्रित होने पर मोक्ष और पराश्रित होने से बंधन होगा। महावीर का इशारा था कि अपने मूल मार्ग को समझा जाए और उसे पूरी तरह जीया जाए। जैन मुनि चन्द्रप्रथजी ने बहुत खुलकर बताया है जो सभी धर्मों के पथिकों पर लागू होता है कि सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन तथा सम्यक चरित्र जीवन में तब आएगा जब बाहरी कर्मकांड से मुक्त होकर मूल मार्ग को भीतर से समझा जाएगा। वरना सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन जैसी अन्य क्रियाएं जीवनभर करते रहो हाथ कुछ दिव्यानुभूति जैसा नहीं लगेगा।