बुधवार, 4 अगस्त 2010

भगवान सबकी सुनता है!


-अरुण कुमार बंछोर 
बहुत समय पहले की बात है। रतनपुर के राजा चन्द्रगुप्त के चार पुत्र थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम मदनसेन था। उसका विवाह अत्यन्त सुन्दर राजकुमारी चन्द्रप्रभा से हुआ था। अभी उसका विवाह हुए एक वर्ष ही बीता था कि पिता पुत्र में किसी बात पर अनबन हो गई। राजा चन्द्रगुप्त ने मदनसेन को देश निकाला दे दिया।

पिता का आदेश सुनकर मदनसेन उदास मन से महल में पहुंचा। पति के उदास चेहरे को देखकर चन्द्रप्रभा ने पूछा, ‘स्वामी! आज आप इतने उदास क्यों हैं?’ मदनसेन ने खिन्न स्वर में कहा, ‘प्रिए! तुम मेरी उदासी का कारण जानकर क्या करोगी?’ केवल इतना समझ लो कि हमारी तुम्हारी अंतिम भेंट है।
मुझे देश निकाले का आदेश मिला है। कल सूर्योदय होते ही मैं रतनपुर छोड़ दूंगा।’ मदनसेन के मुख से देश निकाले की बात सुनकर चन्द्रप्रभा मूर्छित हो गई। यह देखकर मदनसेन घबरा गया। उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा कि उसने देश निकाले की बात चन्द्रप्रभा को क्यों बताई।
फिर उसने सोने की सुराही में से शीतल जल के छींटे चन्द्रप्रभा के मुख पर डाले। जल के छींटे पड़ते ही चन्द्रप्रभा को होश आ गया। करुण स्वर में बोली, ‘स्वामी! आपके बिना मैं भी महल में नहीं रहूंगी। मैं भी आपके साथ चलूंगी।’मदनसेन चन्द्रप्रभा के हठ को जानता था। उसने समझाया, ‘प्रिए! मैं परदेस में आजीविका के लिए कहां-कहां भटकूंगा? फिर तुम राजसी वैभव में पलकर बड़ी हुई हो। परदेस के कष्ट तुम नहीं झेल सकोगी। तुम यहीं महल में रहो। देश निकाले का दण्ड मुझे मिला है, तुम्हें नहीं।’
चन्द्रप्रभा बोली, ‘आप भी तो महलों में पलकर बड़े हुए हैं। आप जैसे दिन बिताएंगे, वैसे ही मैं भी आपके साथ बिता लूंगी। आपके बिना ये राजसी सुख मेरे लिए बहुत कष्टदायक हो जाएगा। जिस प्रकार प्राण निकल जाने पर यह सुंदर देह मिट्टी हो जाती है, उसी तरह राजसी सुख भी पति के बिना ईंट-पत्थर के ढेर ही तो है।’
मदनसेन ने उसे चलने की आज्ञा दे दी। अगले दिन सूर्योदय होते ही मदनसेन ने चन्द्रप्रभा को साथ लेकर वन की ओर प्रस्थान किया। बैसाख मास था। गर्मी अपना रंग दिखा रही थी। उन्हें चलते-चलते दोपहर हो गई। दोनों ही पैदल कभी चले नहीं थे। थकान स्वाभाविक थी। दोपहर में वे आम के बगीचे में पहुंचे।
एक विशाल वृक्ष की छाया में विश्राम करने लग गए। शीतल हवा के झोंकों से नींद आ गई। तभी उस वृक्ष के बिल में से नाग ने निकलकर चन्द्रप्रभा के पैर में काट लिया। नाग के काटने से चन्द्रप्रभा दर्द से तड़प उठी। उसकी चीत्कार सुनकर मदनसेन की आंख खुल गई। पैर से बहते खून और नाग को जाते हुए देखकर मदनसेन समझ गया कि चन्द्रप्रभा को नाग ने काट लिया है। उसने झट से कपड़ा फाड़कर घाव के ऊपर कसकर बांधा, किन्तु विष तेज़ी से फैलता जा रहा था। वह चन्द्रप्रभा को बचाने में असमर्थ रहा। नाग के विष ने उसके प्राण ले लिए।
पत्नी के बिछोह से मदनसेन पागलों की तरह बिलखने लगा। जिसने उसके बिना महलों में रहना स्वीकार नहीं किया, वही कुछ घंटों में साथ छोड़ कर चली गई। राजमहल छूटा, राजसी वैभव दूर हुआ, समाज-परिवार से किनारा किया, अब जीवनसंगिनी भी साथ छोड़कर चली गई।
अब उसके जीवन में शेष रह ही क्या गया है, इससे तो जीवन का अंत कर देना ही अच्छा है- यह सोचकर मदनसेन उठा। वह आस-पास से लकड़ियां बटोर कर चिता बनाने लगा। वह चिता बनाते हुए कह रहा था कि चन्द्रप्रभा के शव के साथ ही अपने जीवन का भी अंत कर देगा। इसके साथ ही उसका रोना ज़ोर पकड़ गया।
देवयोग से शिव-पार्वती भी उधर से निकले। मदनसेन का क्रन्दन उनके कानों में भी पड़ा। एक सुंदरी को चिता पर देखकर पार्वती को उस पर दया आ गई। वे शिवजी से बोलीं, ‘प्रभु! इस युवक का दु:ख दूर कीजिए। इसका क्रन्दन सुनकर मेरा हृदय फटा जा रहा है।’
पत्नी की बात सुनकर शिवजी बोले, ‘गौरी! तुम्हारी यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती। इसी कारण मैं तुम्हें साथ लेकर नहीं निकलना चाहता था। तुम किसी भी प्राणी का दु:ख देखकर झट मेरे पीछे पड़ जाती हो कि इसका दु:ख दूर करो। इस मायावी संसार में सुख-दुख तो लगा ही रहता है।
तुम्हें पग-पग पर न जाने कितने दु:खी प्राणी मिलेंगे। उन सबका कैसे दु:ख दूर किया जा सकता है?’ पार्वती जी पति के क्रोध को जानती थीं। वे हाथ जोड़कर विनम्र स्वर में बोलीं, ‘हे भोलेनाथ! आप चाहे कुछ भी कहें, पर इस युवक का दु:ख तो दूर करना ही होगा।’
पत्नी के इन शब्दों से शिवजी का हृदय पिघल गया। ‘अच्छा गौरी!’ कह कर वे दोनों मदनसेन के पास जा पहुंचे और बोले, ‘वत्स! तुम कौन हो! क्या हुआ है, जो रो-रो कर प्राण देने पर तुले हो।’
मदनसेन हाथ जोड़कर बोला, ‘महाराज! मैं राजा चन्द्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र मदनसेन हूं। पिताजी ने मुझे देश निकाले का दंड दिया है। आपके कंठ की शोभा नाग देव ने मेरी संगिनी को इस वन में डस लिया। उसके विष ने उसके प्राण हर लिए।’
उसे सान्त्वना देते हुए शिवजी बोले, ‘बेटा! इस नश्वर संसार में जो जन्म लेता है, उसे एक दिन मरना ही होता है। तुम यह मानकर धीरज रखो कि तुम्हारी संगिनी का साथ इतना ही था।’
शिवजी के शब्द मदनसेन की पीड़ा नहीं हर सके। वह रुदन स्वर में बोला, ‘महाराज! मरना तो सभी को है, परन्तु यह अकाल मृत्यु बड़ी दु:खदायी होती है।’
मदनसेन के शब्दों को सुनकर शिवजी कुछ सोच में पड़ गए। फिर मृत चन्द्रप्रभा की ओर देखकर बोले, ‘वत्स! इस राजकुमारी की आयु बीस वर्ष थी, सो इसने अपने जीवन का काल पूरा कर लिया। तुम्हारी आयु पैंसठ वर्ष है जिसमें तुमने पच्चीस वर्ष जी ली है। अभी तुम्हारे जीवन के चालीस वर्ष शेष हैं।
तुम्हारी संगिनी को जीवित करने की एक युक्ति है।’ सुनकर मदनसेन ने अश्रु पोंछ लिए और शिवजी के चरणों को स्पर्श करते हुए बोला, ‘भगवन! वह उपाय शीघ्र बताइए। मैं इसके लिए सब कुछ करने को तैयार हूं।’ ‘ठीक है।’ शिवजी बोले, ‘तुम अपने जीवन के बीस वर्ष इसे दान में संकल्प कर दो, तो यह जीवित हो उठेगी।’
शिवजी के मुख से इतना सुनते ही मदनसेन के चेहरे से उदासी के बादल छंटने लगे। वह संकल्प करने के लिए फौरन तैयार हो गया। शिवजी ने अपने कमंडल में से थोड़ा-सा गंगाजल मदनसेन की हथेली पर डाला और कहा ‘संकल्प करने से पूर्व एक बात सुन लो। जिस दिन यह राजकुमारी इसी प्रकार संकल्प करके यह कह देगी कि मैं युवराज मदनसेन द्वारा दी गई वस्तु को लौटा रही हूं, उसी समय इसका अंत हो जाएगा किन्तु यह बात तुम इसे बताना मत। यह कभी तुम्हारे ही काम आएगा।’
इतना कहकर शिवजी पार्वती के साथ चल दिए। युवराज मदनसेन ने शिवजी की बात गांठ बांध ली। फिर उसने यह कहते हुए कि मैं अपने शेष जीवन में से आधा राजकुमारी चन्द्रप्रभा को संकल्प करता हूं। हथेली का गंगाजल उसकी हथेली पर डाल दिया। ऐसा करते ही राजकुमारी चन्द्रप्रभा ‘राम-राम’ कहती हुई जीवित होकर बैठ गई।

यह देखकर मदनसेन की खुशी का ठिकाना न रहा। इसके बाद वे दोनों आगे बढ़ गए। उनके कई दिन जंगल में ही भटकते हुए बीत गए। कंदमूल खाकर ही पेट की आग को बुझाते रहे। एक दिन उन्हें एक कुटिया दिखाई दी। उसे देखकर उनके मन में वहां विश्राम करने का विचार उपजा। कुटिया में पहुंचकर उन्होंने देखा कि एक सुंदर युवक वीर सुगन्धित फूलों की माला पहने तकिया लगाए हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। वे दोनों उस वीर के पास जाकर बैठ गए। राजकुमारी चन्द्रप्रभा ने बड़े गौर से वीर की ओर देखा फिर कुछ क्षणों बाद नज़रें झुका लीं।
तभी युवराज मदनसेन के मुख से निकला, ‘प्यास के मारे होंठ सूखे जा रहे हैं।’ इतना सुनकर वीर बोला, ‘इस कुटिया के पीछे पचास गज की दूरी पर एक कुआं है। वहीं पर तुम्हें लोटा भी मिलेगा। तुम कुएं से जल निकालकर अपनी प्यास बुझा सकते हो।’

राजकुमारी चन्द्रप्रभा बोली, ‘स्वामी! आप कुएं पर जाकर अपनी प्यास बुझाइए। मैं यहीं पर कुछ देर विश्राम करती हूं।’इतना सुनकर युवराज मदनसेन वीर के बताए हुए कुएं की ओर बढ़ गया। इधर राजकुमारी चन्द्रप्रभा ने मन में सोचा कि वनवासी युवराज के साथ पता नहीं कब तक भटकना पड़े। इससे तो अच्छा है कि वीर के साथ रहूं। इसके पास सिर पर एक छत तो है। यह विचार आते ही राजकुमारी चन्द्रप्रभा सोच में डूब गई। इतने में युवराज मदनसेन भी प्यास बुझाकर कुटिया में लौट आया।
उसे देखकर राजकुमारी चन्द्रप्रभा ने कहा, ‘पता नहीं, फिर कितनी देर में जल मिले। मैं भी कुएं पर जाकर जल पी आऊं।’ इतना सुनते ही युवराज मदनसेन राजकुमारी चन्द्रप्रभा को लेकर कुएं की ओर बढ़ गया।
साभार भास्कर

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