बुधवार, 4 अगस्त 2010

भागवत: १२ से १५

भगवान शिव का रूप हैं शुकदेव

भागवत लिखने के बाद व्यासजी के सामने एक और समस्या आ गई कि इस ग्रंथ का प्रचार कौन करेगा ? उनको चिंता हो गई अब यह शास्त्र किसको दूं ? श्रीभागवत शास्त्र मैंने मानव समाज के कल्याण के लिए रचा है। अब यह किसको सौंपूं ? जिससे जगत का कल्याण हो ऐसे किसी योग्य पुरूष को यह ज्ञान दिया जाए।

इस विचार के साथ वृद्धावस्था में भी व्यासजी को पुत्रेष्णा जागी। उन्होंने आह्वान किया। भगवान शंकर वैराग्य के रूप में मेरे यहां पुत्र बनकर आएं। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिवजी प्रसन्न हुए। व्यासजी ने मांगा -समाधि में जो आनंद आप पाते हैं वही आनंद जगत को देने के लिए आप मेरे घर में पुत्र के रूप में पधारिए। शुकदेवजी भगवान शिव का ही अवतार हैं। वाल्मीकि रामायण के बाद श्रीरामचरितमानस रचा गया। रामकथा के वक्ता शंकरजी थे। महाभारत के बाद भागवत रची गई। हम भी भागवत को इस स्तंभ में नई शैली में प्रस्तुति कर रहे हैं।
व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी सोलह वर्ष माता के गर्भ में रहे और वहीं उन्होंने परमात्मा का ध्यान किया। व्यासजी ने गर्भ में ही अपने पुत्र से पूछा- तुम बाहर क्यों नहीं आते। शुकदेवजी ने उत्तर दिया- मैं संसार के भय से बाहर नहीं आता हूं। मुझे माया का भय लगता है। इस पर श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि मेरी माया तुझे नहीं लग सकेगी। तब शुकदेवजी माता के गर्भ से बाहर आए। जन्म होते ही शुकदेवजी वन की ओर जाने लगे।
माता ने प्रार्थना की कि मेरा पुत्र निर्विकार ब्रह्म रूप है किंतु यह मेरे पास से दूर न जाए इसे रोंके। व्यासजी अपनी धर्मपत्नी से बोले जो हमें अतिप्रिय लगता हो वही परमात्मा को अर्पण करना चाहिए। वह तो जगत का कल्याण करने जा रहा है। किंतु व्यासजी भी व्यथित हो गए । व्यासजी ज्ञानी थे, फिर भी जाते हुए पुत्र के पीछे दौड़े।

जीव का संबंध तो परमात्मा से है
व्यासजी अपने पुत्र शुकदेव को बुलाते हैं- पुत्र लौट आओ। तुम्हें विवाह आदि के लिए आग्रह नहीं करेंगे। बस हमें छोड़कर मत जाओ। शुकदेवजी वृक्षों द्वारा उत्तर देते हैं। मुनिराज आपको पुत्र के वियोग से पीड़ा हो रही है परंतु हमको तो जो पत्थर भी मारता है तो हम उसे फल देते हैं। वृक्षों के पुत्र उनके फल हैं। पत्थर मारने वाले को भी फल दे वही सज्जन है। आपका बेटा तो जगत कल्याण करने चला है।

शुकदेवजी ने कहा- पिताजी। मेरे और आपके अनेक जन्म हुए हैं। यह तो अच्छा है पूर्व जन्म याद नहीं रहते। न तो आप मेरे पिता हैं और न ही मैं आपका पुत्र हूं। आपके और मेरे सच्चे पिता तो श्रीनारायण हैं। जीव का सच्चा संबंध तो परमात्मा के साथ ही है। मेरे पीछे न पड़ो श्रीभगवान के पीछे पड़ो। इतना कहकर शुकदेवजी नर्मदा तट पर आ गए। शुकदेवजी ने कहा मैं नर्मदा के इस किनारे पर बैठता हूं और सामने के किनारे पर आप विराजिए। पिताजी, अब मेरा ध्यान न करें। ध्यान तो परमात्मा का ही करें।
इस प्रकार यह भागवत का वंदना क्रम था। शुकदेवजी को प्रणाम करके इस कथा का आरंभ किया गया है। एक बार नैमिशारण्य में शौनकजी ने सूतजी से कहा कि आज तक कथाएं तो बहुत सुनी हैं। अब कथा का सार तत्व सुनने की इच्छा है। ऐसी कथा सुनाइए की हमारी भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति दृढ़ हो। अनेक ऋषि-मुनि वहां गंगा के किनारे बैठे थे। परंतु कथा कहने को तैयार नहीं हुआ।
तब भगवान ने श्रीशुकदेवजी को प्रेरणा दी कि तुम वहां जाओ। भागवत पांचवा पुरुषार्थ प्रेम का शास्त्र है। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का उदय होता है तब इस पवित्र कथा को पढऩे-सुनने का योग बनता है। कलयुग में प्राणियों को काल रूपी सर्प से छुड़ाने के लिए शुकदेवजी ने यह भागवत की कथा कही थी।

निर्भय कर देती है भागवत
भागवत के महात्म्य में एक और चर्चा है। जब परीक्षित को शुकदेवजी कथा सुना रहे थे। उसी समय भागवत के श्लोक को सुनकर स्वर्ग से देवता नीचे उतर आए। देवता शुकदेवजी से बोले- इतने दिव्य श्लोक और भूलोक में बोले जाएं, ये तो देवताओं की संपत्ति है। यह तो स्वर्ग में जाना चाहिए। आप इसे हमें दे दें। शुकदेवजी बोले- मैं तो वक्ता हूं । यजमान हैं राजा परीक्षित। आप परीक्षित से पूछ लीजिए अगर ये देते हैं तो ले जाइए कथा को।

देवताओं ने परीक्षित से पूछा और परीक्षित ने उत्तर दिया। आप मुझे क्या देंगे इसके बदले में? देवताओं ने कहा- इस कथा के बदले हम आपको अमृत दे देंगे। सात दिन बाद आपको तक्षक डसने वाला है आपकी मृत्यु होने वाली है। हम आपको स्वर्ग का अमृत देते हैं। आप अमृत ले लो कथा हमको दे दो। परीक्षित ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया-आप मुझे अमृत तो दोगे। हो सकता है मैं अमर भी हो जाऊं पर निर्भय नहीं हो पाऊंगा।
बड़ा फर्क है अमर और निर्भय होने में। देवताओं आप तो रोज डरते हो, जब कोई दैत्य पीछे लग जाए आप भागते फिरते हो, आप अमर हो पर निर्भय नहीं हो। ये भागवत मुझे निर्भय कर देगी मुझे अमर नहीं होना। शुकदेवजी कहते हैं धन्य हैं आप राजा परीक्षित। आपने बहुत अच्छा निर्णय लिया। शुकदेवजी मुस्कुरा दिए। शुकदेवजी मुस्कुरा रहे हैं और शुकदेवजी ने घोषणा कि भागवत को सुनते समय जीवन में भी उतारें । आलस्य की प्रतिनिधि क्रिया नींद है और आनंद की प्रतिनिधि क्रिया है मुस्कान।आप मुस्कुराएंगे तो आपके भीतर आनंद का जन्म होगा। इसीलिए जरा मुस्कुराइए।

भक्ति के पुत्र हैं ज्ञान व वैराग्य
भागवत कथा का महात्म्य एक बार सनदकुमारों ने नारदजी को सुनाया था। महात्म्य में ऐसा लिखा है कि बड़े-बड़े ऋषि और देवता ब्रह्म लोक छोड़कर विशाला क्षेत्र में इस कथा को सुनने के लिए आए थे। विशालापुरी में जहां सनदकुमार विराजते थे वहां एक दिन नारदजी घूमते हुए आ गए। वहां सनकादि ऋषियों के साथ नारदजी का मिलन हुआ।

नारदजी का मुख उदास देखकर सनकादि ने उनकी उदासीनता का कारण पूछा कि आप चिंता में क्यों हैं? नारदजी ने कहा-मैंने अनेकों स्थानों का परिभ्रमण किया किंतु मुझे शांति नहीं मिली। कलयुग के दोष देखता हुआ घूमता फिरता मैं वृंदावन आया तो वहां एक विचित्र बात देखी। वहां एक महिला अपने दो सुप्तप्राय: अचेतन से पुत्रों के साथ बैठी विलाप कर रही थी। मैं उसके समीप गया और विलाप का कारण पूछा। उस स्त्री ने बताया कि वह भक्ति है। उसके पास अचेतन से पड़े ये दो प्राणी उसके पुत्र हैं। एक का नाम ज्ञान है और दूसरे का वैराग्य है।
स्त्री का कहना था कि कलयुग ने इन दोनों को मृतक समान बना दिया है। और कहा कि मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई कर्नाटक में पली, महाराष्ट में मेरा यौवन निखरा और गुजरात में पहुंचते-पहुंचते ही मैं वृद्धा हो गई। भक्ति ने कहा जबसे मैं वृंदावन आई हूं। तब से मेरा यौवन लौट आया है। किंतु मेरे पुत्रों की दशा दयनीय हो गई है। वे यहां पहुंचते-पहुंचते अचेतन से हो गए हैं।
कर्नाटक में आज भी आचार की शुद्धि देखने में आती है। भगवान व्यासजी को कर्नाटक के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। जो सच था भक्ति के बारे में उन्होंने व्यक्त किया। भक्ति कहती है गुजरात मे जीर्ण हो गई। देवलोकवासी डोंगरे महाराज कहा करते थे। धन का दास प्रभु का दास नहीं हो सकता। गुजरात कांचन का लोभी हो गया है।
साभार-भास्कर

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