घूमते-घूमते नारदजी एक दिन कैलाश पर पहुंचे। कैलाश पर पहुंचे तो शंकर जी ध्यानमग्न थे। पार्वती ने कहा मैं ही आपकी सेवा-पूजा करती हूं। पार्वतीजी ने लड्डू बनाया और नारदजी को दिया कि प्रसाद पाओ। नारदजी तो नारदजी हैं उन्होंने लड्डू मुंह में रखा और उसके बाद बोले वैसा स्वाद नहीं है। पार्वतीजी ने बोला कौन सा स्वाद नहीं है? बोले वो वाला स्वाद है ही नहीं जो उस आश्रम में है, अत्री और अनुसूइया के आश्रम में। क्या लड्डू बनाती हैं मां अनुसूइया। पार्वतीजी ने बोला ये कौन है? नारद ने कहा बहुत ही पतिव्रता स्त्री हैं, उनके पतिव्रत को सब प्रणाम करते हैं।
नारदजी अपना काम करके चले गए। पार्वतीजी ने सोचा मुझसे बड़ी पतिव्रता कौन होगी? उन्होंने शंकरजी को पूरा वृत्तांत सुनाया और बोला उसके पतिव्रत में सचमुच इतनी ऊंचाई है कि हमसे भी अधिक पतिव्रता है तो आप उसकी परीक्षा लीजिए। शंकरजी ने बोला दूसरों के चक्कर में आप न पड़ें देवी। परंतु पार्वतीजी ने कहा नहीं आप ही को जानना पड़ेगा। शंकरजी कैलाश से नीचे उतरे, उनको मिल गए विष्णुजी। कहां जा रहे हैं शंकरजी ने पूछा, विष्णुजी से। बोले, वहीं अत्री आश्रम। आपका क्या हुआ, शंकरजी ने पूछा।
विष्णुजी बोले नारद आया था लक्ष्मी को बोल गया कि वैकुण्ठ में वैभव और वो आनंद है ही नहीं जो अत्री के आश्रम में है। लक्ष्मी अड़ गई कि जरा पता तो लगाओ कि कौन पतिव्रता है। मैं भी शंकरजी अब आपके साथ हूं। दोनों को रास्ते में मिल गए ब्रह्माजी। दोनों ने ब्रह्माजी से पूछा क्या हुआ? अधिक पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। नारद ब्रह्माणी को भी समझा गए थे। लक्ष्मीजी, पार्वतीजी और ब्रह्माणी जी ने कहा उसके पतिव्रत का परीक्षण करके आप आइए।