शनिवार, 25 सितंबर 2010

भागवत: ७६: जीवन साथी का आदर करें



एक दृश्य में जब पार्वतीजी आती हैं तो शंकरजी कह रहे हैं ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा जानी प्रिय'' दो शब्द आए हैं प्रिया और आदर। अपनी पत्नी पार्वतीजी को प्रिया प्रेम दिया। केवल प्रेम देने से काम नहीं चलता। शंकरजी कहते हैं आदर भी जरूरी है। ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा'' ये दाम्पत्य का सूत्र है। शंकरजी यहीं नहीं रुकते ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा, बाम भाग आसन हर दीन्हा''। पार्वतीजी को अपने बाएं भाग में समान बैठाया। पहली बात है हम प्रेम दें, आदर करें। अपने जीवनसाथी के साथ समानता का व्यवहार करें। बाम, भाग, आसन हर दिन्हा, अपने पास में बैठाया।
शंकरजी दाम्पत्य का छोटा सा सूत्र बताते हैं, हमें यह समझना चाहिए। अब ग्रंथकार हमें आगे ले जा रहे हैं। ये धर्म का प्रसंग था। धर्म का प्रसंग हमने पढ़ा, धर्म कैसे बच सकता है। चाहे वह गृहस्थ धर्म हो। अब हम चतुर्थ स्कंध के उस प्रकरण में प्रवेश कर रहे हैं जिसे अर्थ प्रकरण कहा है और अर्थ प्रकरण में धु्रव भगवान का जन्म होने वाला है। मनु-शतरूपा के वंश की चर्चा चल रही थी। हमने तीनों पुत्रियों का जीवन, दाम्पत्य देख लिया। अब पुत्रों की बारी आ रही है। तो उत्तानपाद और प्रियव्रत, उनके दो पुत्र थे।
उत्तानपाद की कहानी अब ग्रंथकार कह रहे हैं। सूतजी कह रहे हैं कि शौनकजी सावधान होकर सुनिएगा। उत्तानपाद बड़े धार्मिक राजा थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम सुनीति और दूसरी का नाम सुरुचि था। इन दो पत्नियों के साथ उनका जीवन चल रहा था। एक बार सिंहासन पर बैठे थे उत्तानपाद। वे छोटी पत्नी सुरुचि को बहुत प्यार करते थे। वह पास में बैठी थी। सुरुचि के पुत्र का नाम था उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम था धु्रव। पांच साल का बालक ध्रुव अपने पिता के पास आया। उसने देखा पिता की गोद में उत्तम भी बैठा है पास में सौतेली मां सुरुचि बैठी हुई है।

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