शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

भागवत: 82: हमें अपना चरित्र स्वयं बनाना पड़ेगा


पिछले अंकों में हमने पृथु का प्रकृति प्रेम पढ़ा। प्रकृति प्रेम भी एक पूजा है, उपासना है। आपको एक कथा याद होगी। एक बार एक बिल्ली चूहे के पीछे दौड़ रही थी। चूहा सरपट भागा, बिल्ली भी भागी। चूहा और भागा, बिल्ली और भागी। जब बिल्ली थक गई तो बैठ गई तभी पीछे से कुत्ता आया और उसने बिल्ली को देखकर जैसे ही भौंका और झपटा तो बिल्ली तुरंत भागी। एक सेकंड पहले जिसको लग रहा था मर जाऊंगी लेकिन अपने प्राण दाव पर लगे तो एकदम भागी सब भूल गई।

प्राण दाव पर लगे तो आदमी की गति तेज हो जाती है। भक्ति की गति तभी बनी रहेगी जब प्राणों का सौदा भगवान से करेंगे। ये याद रखिए बिना प्राण का सौदा किए भगवान नहीं मिलेंगे। जैसे पृथ्वी को पृथु ने तराशा वैसे ही हमें हमें अपने व्यक्तित्व को तराशना पड़ेगा। पृथु के जीवन से यही सीखिए, कैसे उसने पृथ्वी को इस योग्य बना दिया बस ऐसे ही हमें अपने व्यक्तित्व को, अपने चरित्र को गढऩा पड़ेगा, तैयार करना पड़ेगा।ये पृथु के प्रसंग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के माध्यम से हमने सीखा। जिन भगवान श्रीकृष्ण की कथा में हम पढ़ रहे हैं। उनसे एक बात सीख लीजिए। यहां संकेत आता है भागवत में कि श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्तित्व को तैयार करके समर्पित कर दिया था।
इसीलिए श्रीकृष्ण अपने व्यक्तित्व की मौलिकता बनाए रखने के लिए कभी राजा नहीं बने। आपको ये जानकारी होनी चाहिए कि श्रीकृष्ण ने कभी कोई राजगादी स्वीकार नहीं की। बिना सत्ता के भी लोग कृष्ण को द्वारकाधीश कहते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा पीछे रहकर, लोप्रोफाइल में रहकर बहुत सारे काम किए जा सकते हैं। इसीलिए श्रीराम भी 14 वर्ष तक राजा नहीं बने और बिना राजा बने वो दुनिया के राजा बन गए।

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