बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

भागवत: ९२ :ज्ञान प्राप्ति के पहले उसके योग्य बनना पड़ता है



अब तक आपने पढ़ा कि जड़भरत राजा रघुगण की पालकी कहार बनकर उठाते हैं और राजा उनसे सवाल करता है। तो जड़भरत उत्तर देते हैं कि देह अपना काम कर रही है, आत्मा अपना काम कर रही है। ये उत्तर सुनकर राजा सोच में पड़ गए। एक कहार ऐसी बात कर रहा है। राजा ने कहा अच्छा इतने मन की बात करता है तो तू जानता है मन क्या है। जड़भरत बोले मन, मन तो भगवान ने दिया है भीतर है। झांककर देखो और मन को सुला दो परमात्मा सामने होगा।
अब राजा चौंक गए कि मैं जिससे बात कर रहा हूं ये कुछ विचित्र सा आदमी है। उन्होंने पूछा तू जानता है मैं कौन हूं? तो जड़भरत पूछते हैं कि आप कौन हो ये तो मुझे नहीं मालूम पर आप जानते हैं मैं कौन हूं? न मैं जानता हूं, न तुम जानते हो, हम दोनों कौन हैं? अगर यह जान जाओगे तो एक-दूसरे से पूछोगे ही नहीं कि तू कौन, मैं कौन? अब राजा समझ गया। जड़भरत के पैरों में प्रणाम किया। कहा या तो आप कपिल मुनि हैं जिनके पास मैं जा रहा हूं या आप भगवान हैं। आप कौन हैं?
जड़भरत को तो तब भी कुछ लेना-देना नहीं था उन्होंने कहा कि तुम वेदांत का ज्ञान लेने जा रहे हो तो जरा विचार तो करो, इसके योग्य तो बनो। संकेत यह था कि राजा पालकी में सज-धजकर, सेना के साथ, कहारों के साथ सत्संग सुनने जाओगे तो फिर कभी कुछ हाथ नहीं लगेगा। राजा बनकर कभी सत्संग में नहीं जाया जा सकता। सत्संग तो समानता से हो सकता है। रघुगण को बात समझ में आई। जड़भरत ने हमें ये बताया कि हम कितने ही बुद्धिमान हो जाएं जड़भरत बने रहना। जड़ का मतलब मूर्ख होना नहीं है। जड़ का मतलब है निष्कामता। भागवत में चर्चा करते-करते निष्कामता, मन, भक्ति, भगवान ये कुछ शब्द आते ही रहेंगे।

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