मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

भागवत १४३: जब शुकदेवजी ने ली परीक्षित की परीक्षा

शुकदेवजी ने परीक्षित को बताया कि पहले मैंने सूर्यवंश की कथा सुनाई अब चंद्रवंश की सुनाता हूं। इक्षवाकु हुआ, निली हुआ। निली के बाद जनक के वंश के विषय में सुनाया। जनकराज के बाद चंद्रवंश की चर्चा करते हैं। कहते हैं अत्रि हुआ, अत्रि से चन्द्रमा फिर बुध, शांबी, गादी राजा की सत्यव्रती पुत्री हुई। उसके वंश में आगे जाकर विश्वामित्र हुए, परशुराम हुए फिर ययाति की कथा सुनाते हैं। ययाति के वंश में पुरुरवा पैदा हुआ और उसके बाद नहुष हुए।

इनकी 12वीं पीढ़ी में दुष्यंत पैदा हुआ और दुष्यंत के यहां भरत पैदा हुआ। शांतनु इस पीढ़ी में पैदा हुए। कुरु राजा थे उनके नाम पर कुरुवंश पड़ा। शांतनु की संतान थे भीष्म और यहां से कुरुवंश की चर्चा करते-करते शुकदेवजी बताते हैं। हे परीक्षित! इस वंश में फिर तुम पैदा हुए और तुम्हारे पुत्र जन्मेजय, सूतसेन हुए, भीमसेन हुए, उग्रसेन हुए और तुम्हारे वंश का अंतिम राजा क्षेमक हुआ। इसके बाद तुम्हारा वंश समाप्त हो गया। सारी वंशावली बता दी।अब भागवत में श्रीकृष्ण का प्रवेश हो रहा है। भागवत का फल है दशम स्कंध।
दशम स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित की परीक्षा ली। कहा- पांच दिनों से एक आसन से बैठे हो, कुछ जलपान करना हो, भोजन आदि करना हो तो कर सकते हो। परीक्षित ने कहा कि भगवन अन्न तो क्या मैंने तो जल भी त्याग दिया है। भूख-प्यास मुझे अब बिल्कुल सता नहीं पाती। राजा के वचन सुनकर शुकदेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई, राजा सुपात्र और जिज्ञासु भी हैं। दशम स्कंध तो भगवान श्रीकृष्ण का हृदय है। वे रस स्वरूप हैं अत: जीव भी रस स्वरूप है। श्रीकृष्ण कथा सभी प्रकार के जीवों को आकर्षित करती हैं।

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