बुधवार, 15 दिसंबर 2010

मंदी सहालग

दोपहर की धूप तेज होती हुई जेहन में घुसी जा रही थी। लालता प्रसाद ने माथे का पसीना पोंछा और चश्मा उतारकर एक तरफ रख दिया। दुकान के आगे लगा तिरपाल अब पुराना हो चुका था। तिरपाल के छेदों में से धूप निकलकर उनके शरीर पर पड रही थी, जिससे बचने के लिए उन्होंने कुर्सी को थोडा पीछे खिसका लिया था। धूप काफी तेज थी और बाजार में सन्नाटा था। लेकिन उनका मन और कहीं लगा हुआ था। लालता प्रसाद की परेशानी का कारण, गर्मी नहीं बल्कि चुनाव था। यूं कहने को तो वे मामूली दुकानदार थे, कपडों की छोटी सी दुकान थी, जो प्राय: नहीं के बराबर चलती थी। लेकिन वे बरसों पुराने पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ता थे। चुनाव और राजनीति उनके जीवन के दो पहलू थे। पुराने समय में जब राजनीति में मूल्यों की कद्र थी, तब उनका काफी सम्मान था। लेकिन समय के साथ हुए राजनीति के पतन ने उनकी पहचान को कम कर दिया। धीरे-धीरे उनकी उपयोगिता केवल चुनाव तक सिमट कर रह गई। लालताप्रसाद संतोषी जीव थे, अब उनकी इच्छाएं अधिक थी भी नहीं। बस कुछ लोग उन्हें सम्मान देते थे, पहचानते थे, इसी में वे खुश रहते थे।

लेकिन इस बार ऐसा भी नहीं हुआ। चुनाव घोषित हुए काफी समय हो गया। टिकट बंट गए। प्रत्याशियों की सरगर्मियां शुरू हो गई। यहां तक कि उनके इलाके में भी चुनाव कार्यालय खुल गया, पर अभी तक कोई बुलावा नहीं आया। चुनाव की घोषणा होते ही उनके सफेद कुर्ते-पजामे व टोपी कलफ लगकर तैयार हो गई। राजनीति पर उनके वक्तव्य अभी तक घर व अडोस-पडोस तक ही सीमित थे। सभी लोग उनसे सक्रियता की अपेक्षा लगाए हुए थे, जिससे उन्हें अंदर तक टीस होती थी। वर्षो से मिलने वाला सम्मान, भले ही ऊपरी हो, अल्प हो, लेकिन उनके जीवन का एकमात्र सुख था। वे जीवन के परिवर्तन को जानते थे। पर उन्हें लगता था कि दुनिया का पतन अभी इतना नहीं हुआ है। वे मानते थे कि राजनीति में नए व स्वार्थी लोगों का भारी जमावडा हो गया है। लोग सिर्फ अपने और सिर्फ अपने उद्धार के लिए राजनीति में घुस रहे थे। देश से किसी को लेना-देना नहीं था। और तो और उनके मोहल्ले का असामाजिक तत्व गोवर्धन, जो कि सभी तरह के गलत धंधों में लिप्त था उनकी पार्टी का सक्रिय सदस्य था और एक अहम पद पर कार्य कर रहा था।

ऐसी किसी भी घटना के होने पर उनका दिल बैठ जाता था। पर अंतत: वे अपने इसी तर्क पर जिन्दा थे कि भगवान सब देखता है। उन्होंने कभी जीवन में ईमानदारी का दामन नहीं छोडा तो बुढापे में क्या करें। और फिर चुनावों में उनको बुला लिया जाता था, उनसे औपचारिक बातचीत की जाती थी, यही उनके दिल में शांति भर देता था। लेकिन इस बार अभी तक कोई नहीं आया। उनके घर के सामने से चुनावी नारे लगाती हुई गाडियां निकलती थीं। तो वे काउंटर के नीचे बैठ जाते थे। दुकान पर आए प्रत्येक ग्राहक की निगाह उन्हें यही सवाल पूछती हुई जान पडती थी, बाबा इस बार आपको चुनाव में कोई बुलाने नहीं आया? इसी तरह तपती धूप में हवा के थपेडे खाते पूरा दिन निकल गया। पत्नी ने एकाध बार आराम करने को कहा। पर वे काम का बहाना करके नहीं गए। जबकि हकीकत यह थी कि वे यह सोच रहे थे कि ऐसा न हो कि कोई बुलाने आ जाए और वे ना मिलें। पत्नी उनकी नितांत घरेलू और धैर्यवान श्रोता थीं जो लालताप्रसाद कह देते, वह मान लेती थीं।

धीरे-धीरे शाम ढल गई। उन्होंने दुकान बढाई और सोने चले गए। उन्हें रात भर नींद भी नहीं आई। तरह-तरह के विचारों का क्रम चलता रहा। सोचते-सोचते उन्हें ख्याल आया कि ऐसा तो नहीं हुआ कि नेताजी ने किसी आदमी को बुलाने के लिए कहा हो। और वह आया ही नहीं हो। उनके शरीर में स्फूर्ति की लहर दौड गई। जरूर यही हुआ है, नहीं तो भला कोई लालताप्रसाद को भूल सकता है। है कोई ईमानदार उनके बराबर और उन्होंने कभी किसी से कुछ मांगा है कभी?

दूसरे दिन उठकर उन्होंने दुकान नहीं खोली। नहाए-धोए व तैयार किया हुआ कुर्ता-पाजामा निकाला, सफेद टोपी पहनी और साइकिल लेकर घर से निकल लिए।

उन्हें अब ग्लानि हो रही थी। इतने दिन से यह बात उनके दिमाग में नहीं आई। खैर कोई बात नहीं, नेताजी थोडा नाराज होंगे। कुछ बोलेंगे तो कह दूंगा कि तबियत ठीक नहीं थी। अब क्या करूं? बुढापा आ रहा है, कहां तक भागता फिरूं। अब मेरे बस का रहा भी नहीं। और कोई भागने-दौडने की जिम्मेदारी लेंगे भी नहीं। एक जगह बिठाकर काम करा लो, कुछ भी कर देंगे।

सोचते-विचारते वह बंगले के नजदीक जा पहुंचे। हालांकि दिन अधिक नहीं चढा था, पर चुनाव के कारण अच्छी-खासी भीड थी। साइकिल को दीवार से लगाकर उन्होंने टोपी सीधी की और भीतर घुस गए। वहां अधिकांशत: चेहरे परिचित थे। वे सीधे नेताजी के कमरे की ओर बढे, पर वहां बैठे चौकीदार ने उन्हें रोक लिया, नेताजी सुबह ही लौटे हैं, अभी सो रहे हैं। बाद में मिलना।

चौकीदार की बेरुखी ने मुंह से निकले शब्दों को गले के बाहर नहीं आने दिया। वह बरामदे में पडी कुर्सी पर बैठ गए।

बारह बजे के करीब नेताजी कमरे से बाहर निकले। उनके साथ भीड साथ हो ली। लालताप्रसाद तेज कदमों से चलकर उन तक पहुंचे। नेताजी ने उन्हें देखा परन्तु कुछ बोले नहीं। इस पर लालताप्रसाद ने कहा, नेताजी, मैं आ गया हूं, कोई मेरे लायक काम हो तो बता दो। नेताजी की रफ्तार कायम रही, काम! हां, गोवर्धन के साथ लग लो। कहकर वे गाडी में जा बैठे। थोडी ही देर में धूल उडाती हुई गाडी आंखों से ओझल हो गई। वे मुडे। गोवर्धन, उनकी ओर व्यंग्यात्मक दृष्टि से देख रहा था, अब बाबूजी बुढापे में काहे को परेशान होते हो? घर जाओ, आराम करो। सब हो जाएगा। लालताप्रसाद के लिए यह सब असहनीय था। उन्होंने बाहर निकलकर अपनी साइकिल उठाई और बोझिल कदमों से चलते हुए घर आ गए। साइकिल की आवाज सुनकर उनकी पत्नी बाहर निकल आई, क्या बात है, आज सुबह सुबह कहां चले गए थे? अरे कुछ नहीं, सामान खत्म हो गया था, लाने चला गया था। कहकर वे दुकान में घुस गए। वे अंदर जाकर क्या करें उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। थोडी देर वे कपडों के थानों को उलटते-पलटते रहे फिर उन्हें गल्ले के ऊपर लगी धूल दिखाई दी। पोंछे के लिए उन्होंने आसपास निगाह दौडाई। फिर न मिलने पर सिर की टोपी उतारी और धीरे-धीरे उससे पोंछने लगे। गल्ले की धूल साफ होकर धीरे-धीरे सफेद टोपी पर जमती जा रही थी। लेकिन उन्हें अब टोपी के गंदे होने का गम नहीं था, बल्कि वे पहले से सुकून महसूस कर रहे थे।

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