शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

भागवत: १३३: जब भगवान राम ने सीता का वरण किया

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि ऋषि विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को अपने साथ ले गए और राम-लक्ष्मण ने कई राक्षसों का वध कर यज्ञ संपन्न करवाया। यहां से विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को जनकपुर ले गए। जनकपुर में धनुष यज्ञ हुआ। राम ने भगवान शंकर का धनुष खेल ही खेल उठा लिया और जैसे ही उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे वह टूट गया। सीताजी को भगवान ने वरण किया, विवाह हुआ। भगवान का विवाह हो रहा है। इधर जनकपुर की स्त्रियां बैठी हुई हैं और इधर भगवान की बारात बैठी है।

ऐसा कहते हैं कि मिथिला की स्त्रियां टिप्पणियां करने में बड़ी चतुर थीं। सीताजी की सखियों ने रामजी को देखा और कहा-देखो ये दशरथ के बेटे हैं । अयोध्या के राजकुमार यज्ञ से पैदा हुए हैं, खुद नहीं हुए। लक्ष्मणजी को तो ये सब बर्दाश्त था ही नहीं। उन्होंने कहा हम तो फिर भी यज्ञ में से पैदा हुए हैं पर हम जिसको ले जा रहे हैं वो तो जमीन में से निकली है फिर भी ले जा रहे हैं। अयोध्या में तो यज्ञ से होते हैं पर जनकपुरी में जमीन में से निकालते हैं। हास्य, विनोद के प्रसंग से भगवान का विनोद हो रहा है। देखिए जीवन में जब हम परिवार में मिले, जब कोई उत्सव हो तो मनोविनोद की प्रवृत्ति बनाए रखिए, गाम्भीर्य को थोड़ी देर बाहर कर देना चाहिए।
उम्र परिवार में बाधा नहीं होना चाहिए। परिवार में उम्र नहीं होती, परिवार में रिश्ता होता है। तो भगवान अपने उत्सव में आनन्द मना रहे हैं। विवाह हो गया। बारात घर लौटकर आई। यहां बालकाण्ड पूरा हुआ। इसके बाद राजा दशरथजी विचार कर रहे हैं। निर्णय लेते हैं कि कल राम को राजा बना दिया जाए, फैसला हो गया। घोषण कर दी गई। अयोध्या में उत्साह हो गया। सब प्रसन्न हो गए।

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