सोमवार, 6 दिसंबर 2010

ध्यान का अर्थ

 ऋषि जंगल में अपने शिष्यों के साथ रहते थे। उनके रहने के लिए झोपडि़यां बनी थीं। उन्हीं झोपडि़यों के ब
ीच में झाड़-फूस का एक कक्ष भी था। पूरा माहौल देखकर लगता था मानो वह जगह कोई विद्यापीठ हो। राजा को जब ऋषि के इस विद्यापीठ के बारे में पता लगा तो उसके मन में उस स्थान को देखने की उत्सुकता जागी। एक दिन वह जंगल जा पहुंचा।
ऋषि ने राजा का स्वागत किया और जैसी कि राजा की इच्छा थी उसे वहां घुमाना शुरू किया। वह राजा को एक-एक झोपड़ी के पास ले गए और बताने लगे कि उनके शिष्य कहां रहते हैं। कहां स्नान करते हैं, कहां खाना खाते हैं। लेकिन राजा की उत्सुकता तो उन झोपडि़यों के बीच अलग से दिखाई देने वाले कक्ष में थी।
राजा ने ऋषि से कई बार पूछा कि वह इस कक्ष में क्या करते हैं, लेकिन ऋषि ने एक बार भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा। आखिरकार राजा झुंझला गया। उसने जोर से कहा, 'आपने मुझे हर जगह घुमाया। हरेक स्थान के बारे में बताया पर इस कक्ष को न तो आपने दिखाया और न ही मेरे बार-बार पूछने पर भी यह बताया कि आप और आपके शिष्य इसमें क्या करते हैं?' ऋषि बोले, 'राजन हम इस कक्ष में कुछ नहीं करते हैं? हम यहां मात्र ध्यान में जाते हैं। ध्यान कुछ करना नहीं है। अगर मैं आपके पूछने पर यह उत्तर दूं कि हम यहां ध्यान करते हैं तो यह गलत होगा। क्योंकि ध्यान कोई क्रिया नहीं हैं। इसलिए जब भी आपने इस कक्ष के बारे में पूछा मुझे चुप रहना पड़ा। ध्यान तो वह स्थिति है जब ध्यानी कुछ भी नहीं करता। उसका शरीर भी शांत होता है और मन भी।' राजा ध्यान का अर्थ समझ गया।


पूजा और भक्ति
एक साधु एक राजा के अतिथि बने। राजा ने साधु से पूछा, 'बताएं, पूजा और भक्ति में क्या अंतर है?' साधु ने र
ाजा को कुछ दिन प्रतीक्षा करने के लिए कहा। एक दिन जब राजा और साधु एक साथ भोजन कर रहे थे तब राजा ने रसोइए को बुलाया और कहा, 'आज सभी सब्जियां स्वादिष्ट हैं लेकिन बैंगन की सब्जी लाजवाब है।' रसोइए ने प्रसन्न होकर कहा, 'महाराज, बैंगन तो है ही शाही सब्जी। जैसे आप शहंशाह हैं वैसे ही बैंगन भी सब्जियों का शहंशाह है।' रसोइए ने अगले दिन फिर से बैंगन की सब्जी बनाई। अब वह रोज बैंगन बनाने लगा।
एक दिन राजा ने भोजन की थाली परे सरकाते हुए रसोइए को बुलाकर फटकार लगाई। रसोइया हाथ जोड़कर बोला, 'महाराज गलती हो गई। बैंगन तो घटिया सब्जी है। इसमें तो कोई गुण नहीं होता तभी तो इसका नाम बैंगन पड़ा। आदमी तो क्या, इसे जानवर भी नहीं खाते। अब मैं कभी इसकी सब्जी नहीं बनाऊंगा।' राजा रसोइए की बात सुनकर हैरान था।
उसने कहा, 'अभी कुछ दिन पहले तो तुम बैंगन की तारीफ कर रहे थे और आज इसे घटिया कह रहे हो।' रसोइया तपाक से बोला, 'महाराज, मैं नौकर आपका हूं, बैंगन का नहीं।' तभी साधु ने बीच में टोकते हुए राजा से कहा, 'रसोइए ने ऐसा मेरे कहने पर किया है। यही आपके प्रश्न का उत्तर है। हम मंदिर जाकर पूजा करते हैं, करवाते है, पुजारी को दक्षिणा देते हैं। यह भक्ति नहीं है। पुजारी तो ठहरा दक्षिणा का भोगी। जैसी दक्षिणा वैसी पूजा, वैसा ही आशीर्वाद। पूजा में हमें परमात्मा की भक्ति कहां याद रहती है।' राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।

शायर की दावत
ईरान में एक बादशा ह था। उसकी एक शायर से बड़ी गहरी दोस्ती थी। बादशाह का दरबार लगता, दावतें होतीं तो शाय
र भी उसमें शामिल होता। दावत में तरह-तरह के पकवान परोसे जाते। शायर उनका मजा लेता। बादशाह पूछते, 'कहो, दावत कैसी रही?' शायर हमेशा जवाब देता, 'हुजूर दावत तो शानदार थी, पर दावते शिराज की बात कुछ और है।' बादशाह इस उत्तर को सुन परेशान होता। आखिर यह दावते शिराज क्या बला है? कहां होती है? एक दिन उसने यह प्रश्न शायर से पूछ ही लिया।
शायर ने कहा, 'हुजूर यह दावत मेरे शहर शिराज में होती है। कभी शिराज पधारें तो उसका लुत्फ उठाइए।' संयोग से कुछ दिनों के बाद ही बादशाह का शिराज शहर में जाना हुआ। बादशाह ने शायर को बुलाया और कहा, 'तैयारी करो, आज हो जाए- दावते शिराज।' शायर बोला, 'हुजूर, दावते शिराज तैयार है, आप मेरे साथ चलें।' शायर बादशाह को अपने घर ले गया। एक साधारण कुर्सी पर बिठाया, थाली में रोटी-सब्जी और चटनी रखी और बादशाह को पेश कर दी।
बादशाह ने पूछा, ' ये क्या है?' शायर ने कहा, 'हुजूर, यही दावते शिराज है। घर में आए मेहमान को जो कुछ घर में उपलब्ध है, उसे प्रेम और आदर से प्रस्तुत करना ही दावते शिराज है। इसका मजा ही कुछ और है। बादशाही दावतों में लंबे चौड़े आयोजन होते हैं। नौकर-चाकर दौड़ते- भागते हैं। दिखावा ही दिखावा होता है, उसमें यह प्रेम और सम्मान कहां। दावते- शिराज की बात ही कुछ और है।' बादशाह ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। बोले, ' ठीक कहते हो। ऐसा शांत अपनत्व भरा भोजन हमारे भाग्य में कहां? दावते-शिराज के सुख का आज हमें पता चला।'

सच्चा सहयोगी
किसी राजा को अपने मंत्रियों में से एक बहुत प्रिय था। वह राजा का विश्वासपात्र था। राजा हर मामले में उसक
ी सलाह जरूर लेता था। कुछ ईर्ष्यालु स्वभाव वाले मंत्रियों-दरबारियों को यह सहन नहीं होता था। उनमें से कुछ ने एक दिन राजा से शिकायत की। वे बोले, 'अपराध क्षमा हो, राजन! जिस मंत्री को आप अपना प्रिय व विश्वासपात्र समझते हैं वास्तव में वह भ्रष्टाचारी है। राज्य में जो भ्रष्टाचार फैला हुआ है, इसका मुख्य कारण यह मंत्री ही है।' यह सुनकर राजा ने अपने उस प्रिय मंत्री को उन मंत्रियों के सामने बुलाया और कहा, 'ये लोग तुम्हारे ऊपर जो आक्षेप लगा रहे हैं उसके निराकरण के लिए तुम्हें एक सप्ताह का समय दिया जाता है। तुम्हें खुद को निर्दोष सिद्ध करना पड़ेगा नहीं तो दंड भुगतना पड़ेगा।' उस मंत्री ने अपने घर आकर राजा को एक पत्र लिखा, 'राजन! अपमानित होने से मरना अच्छा है, इसलिए मैं मरने जा रहा हूं, अलविदा।' और मंत्री पत्र लिखकर अज्ञात स्थान पर चला गया।
राजा ने पत्र पढ़ा और उसकी छानबीन की। मंत्री के न मिलने से राजा ने उसे मृत समझकर शोकसभा आयोजित की। वह मंत्री भी वेश बदलकर अपनी शोकसभा में पहुंचा। वहां उपस्थित जन समूह उसको श्रद्धांजलि दे रहा था। शिकायत करने वाले भी कह रहे थे, 'मंत्री जी बहुत ईमानदार, विश्वासपात्र व उच्च विचारों वाले व्यक्ति थे। उनकी असामयिक मृत्यु से हम सब दुखी हैं।' यह सुनते ही वह मंत्री अपने असली रूप में आ गया। उसे देख उसके विरोधियों के होश उड़ गए। मंत्री ने राजा से कहा, 'देखा महाराज। इन लोगों की राय कैसे बदल गई। अगर मैं बुरा था तो आज ये मेरी प्रशंसा क्यों कर रहे हैं। क्या आप ऐसे लोगों पर विश्वास करेंगे जिनके विचार हमेशा बदलते रहते हैं।' राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने उस मंत्री को गले से लगाया और उन लोगों को राजसेवा से निकाल बाहर किया जिन्होंने मंत्री की शिकायत की थी।

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