सोमवार, 6 दिसंबर 2010

भागवत-१३६: जब लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि भरत को जब पता चला कि राम को वनवास दे दिया गया है तो वे बोले- मैं भैया को पुन: लेकर आऊंगा। सब लोग बोलते हैं कि हम भी आपके साथ चलेंगे। भरतजी के साथ, गुरुदेव के साथ सब लोग चित्रकूट पहुंचते हैं। भगवान से भरत का मिलन होता है। भगवान से भरतजी कह रहे हैं कि आप चलिए ये राज्य आप ले लीजिए। भगवान बोलते हैं, नहीं भरत अब तुम इसको स्वीकार करो। एक भाई छोडऩे को तैयार है दूसरा भाई वापस उसको दे रहा है। यह संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है।
राम बोलते हैं ये पादुका लेकर तू चला जा। पादुका लेने का अर्थ है कि भगवान ने अपना दायित्व तुझको दिया। चित्रकूट से सब लोग रवाना होते हैं। अरण्यकाण्ड में प्रवेश करते हैं। चित्रकूट छोड़कर भगवान् अत्रि-अनुसूइया के आश्रम में आए। फिर अगस्त्य ऋषि के आश्रम में आते हैं और फिर दंडक वन में पहुंचते हैं। पंचवटी में शूर्पणखा आ जाती है। शूर्पणखा लक्ष्मण पर मोहित हो जाती है और बोलती है तुम मुझसे विवाह करो। लक्ष्मण मना कर देते हैं। शूर्पणखा सीता को खाने के लिए लपकती है तो लक्ष्मणजी शूर्पणखा के नाक-कान काट देते हैं। शूर्पणखा रावण के पास पहुंचती है। रावण को भड़काती है कि मैं तेरे लिए सुंदर-सी स्त्री ला रही थी, पर दो राजकुमार अड़ गए।
वो जानती थी कि सुंदर स्त्रियां मेरे भाई की कमजोरी है। बदला खुद का लेना था, भाई को दूसरे तरीके से भड़का रही है। भाई भी भड़क गया, उसने कहा-ठीक है । अभी जाते हैं और रावण लंका से निकलता है। एक दिन भगवान ने एकांत में सीताजी से कहा कि सीते! अब लीला का अवसर आ गया है। तुम और मैं अकेले हैं लक्ष्मण बाहर गया है तुम एक काम करो तुम अग्नि में प्रवेश कर जाओ और अपनी प्रतिछाया यहां छोड़ दो। रावण तुम्हारा अपहरण करेगा। जाओ तुम अग्नि में निवास कर लो। सीताजी अपनी प्रतिछाया वहां छोड़ती हैं और अग्नि में निवास कर जाती हैं।

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