सोमवार, 13 दिसंबर 2010

भागवत १४२: शुक्राचार्य के श्राप से जवानी में ही बूढे हो गए ययाति

भागवत में शुकदेवजी पुरुरवा के वंश का वर्णन कर रहे हैं। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को बताया कि एक बार दानवराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा व शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अन्य सखियों सहित एक वन में भ्रमण करने के लिए गईं। सभी वस्त्र उतारकर सरोवर में जल विहार करने लगीं तभी शंकर भगवान उधर से निकले। उनको आता देखकर सभी सखियों ने सरोवर से जल्दी-जल्दी निकलकर वस्त्र पहने और भूल से देवयानी ने शर्मिष्ठा के वस्त्र पहन लिए। अपने वस्त्र देवयानी को पहने देख शर्मिष्ठा ने देवयानी को कुएं में डाल दिया।

थोड़ी देर बाद पुरुवंशी राजा ययाति आखेट के लिए वहां से निकले। कुएं में से आवाज आने पर वे उसके समीप गए। कुएं में देवयानी दिखाई दी, उसे निकाला। आपस में परिचय हुआ और दोनों ने विवाह कर लिया। शुक्राचार्य की भी स्वीकृति हो गई। देवयानी अपने घर लौट आई। तब देवयानी ने शर्मिष्ठा के व्यवहार के बारे में अपने पिता शुक्राचार्य को बताया। शुक्राचार्य वृषपर्वा के घर गए। वृषपर्वा ने क्षमा मांगी और निर्णय देवयानी पर छोड़ दिया गया। देवयानी ने शर्त रखी कि शर्मिष्ठा उसके विवाहित पति की दासी बनकर रहना स्वीकार करे, किन्तु यह भी शर्त थी कि वह ययाति के साथ सम्बन्ध नहीं रखेगी।
किन्तु एक दिन शर्मिष्ठा पुत्रवती होने की ललक में राजा ययाति के पास पहुंची और राजा ने उसकी इच्छा को पूर्ण किया। यह बात जानकर देवयानी अपने पिता के घर चली गई। पिता ने जब यह बात सुनी तो ययाति को वृद्ध होने का श्राप दिया। लेकिन फिर कहा कि यदि तुम्हारा कोई पुत्र अपना यौवन दे दे तो तुम पुन: युवा हो सकते हो। ययाति नगर लौटे, उन्होंने पुत्रों से यह बात कही, किन्तु किसी ने अपना यौवन देना स्वीकार नहीं किया। तब उनके छोटे पुत्र पूरु ने अपना यौवन देना स्वीकार किया। अन्त में जब ययाति को बोध हुआ तो उन्होंने पूरु को यौवन लौटा दिया और परमधाम चले गए।
क्रमश:..

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