बुधवार, 1 दिसंबर 2010

हमारे यहाँ कितने ही भोपाल हैं

हमारे तंत्र की सारी गंदगी और जलालत भोपाल गैस त्रासदी के रूप में बेनकाब होती है। कितनी लचर और अपराधियों को बचाने वाली हमारी राजनीतिक-कानूनी व्यवस्था है, इसकी खौफनाक तस्वीर पेश करता है भोपाल गैस कांड।
हिरोशिमा और नागासाकी की याद दिलाने वाली इस घटना के दोषियों को दो साल की सजा यह सोचने के लिए बाध्य करती है कि किस तरह से इस व्यवस्था से कोई भी भारतीय न्याय पाने की उम्मीद रख सकता है।
जिस दुर्घटना ने 1 लाख 20 हजार लोगों की जिंदगी पर असर डाला हो, जिसमें 20 हजार लोगों की मौत हो चुकी हो और जिसके कारण पीढ़ियाँ की पीढ़ियाँ विकलांग पैदा हुई हों, उसके प्रति इतनी भीषण उदासीनता की मिसाल इतिहास में दूसरी नहीं मिलती है।
आजादी के बाद से यह संभवतः पहला मौका है, जिसमें इतने बड़े पैमाने पर इंसानों की जानें जाने के बाद भी सरकार ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को बचाने के लिए झूठ और मक्कारी का ऐसा जबर्दस्त जाल बुना। उसने यह साबित किया कि हिन्दुस्तानियों की जान पूरे तंत्र के लिए कितनी अधिक सस्ती है।
1984 के अंत में हुई दुर्घटना का न्याय 2010 में मिले और उसमें भी मामूली सी सजा सुनाई जाए, इससे पूरे लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगता है। सोचकर हैरानी होती है कि इतने साल बीतने के बाद भी भोपाल के उस इलाके के पानी में जहर बना हुआ है, माँओं के दूध तक में सीसे और पारे जैसे विषाक्त पदार्थ मिल रहे हैं और इससे निजात दिलाने के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है।
इसके उलट अपना सब कुछ गँवा चुके निवासियों को इस तरह के फैसलों से नवाजा जा रहा है।
यह देखकर लगता है कि हम हिन्दुस्तानी होने पर कैसे गर्व करें? ऐसा देश है हमारा, जहाँ कि एक के बाद की एक सरकारें जनता को राहत देने की बजाय एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को फायदा दिलाने-राहत दिलाने के लिए काम करती हैं। चाहे वह वैज्ञानिक हो या आम नागरिक, सबके लिए भोपाल गैस कांड जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के समान है।
देश की अब तक की सबसे बड़ी रासायनिक दुर्घटना के बारे में और उसके पीड़ितों के बारे में हमारा जो रवैया बेहद शर्मनाक रहा है। यह बात सिर्फ आंदोलनकारी कह रहे हैं कि वहाँ जहरीली वस्तुएँ मौजूद हैं, ऐसा नहीं है। खुद सरकार की 2002 की रिपोर्ट यह कह रही है कि भोपाल के यूनियन कार्बाइड के पूरे परिसर और आसपास के इलाके में जहरीली-खतरनाक चीजें मौजूद हैं और उनका पूरा असर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।
2002 में इस रिपोर्ट के सामने आने पर भी वहाँ के निवासियों को इस जहर से बचाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई, जबकि हम देख चुके हैं कि हिरोशिमा-नागासाकी हमले से जिंदा बचे लोगों-पीड़ितों को बचाने, उनके इलाज के लिए कितने बड़े पैमाने पर योजना बनाई गई थी। इसकी तुलना में हमने क्या किया?
हमने सबसे पहले तो यही नहीं बताया कि भोपाल गैस कांड में किस जहरीली गैस के रिसाव से इतने लोग मरे। इसके बाद एक के बाद नित नए झूठ रचने का सिलसिला शुरू हुआ। दरअसल, लाशों पर राजनीति का सबसे बर्बर उदाहरण है भोपाल गैस त्रासदी।
जो लोग जिंदा बच गए वे 26 साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद आज यह सोच रहे हैं कि वे भी मरने वालों के साथ ही मर जाते तो शायद बेहतर होता।
आज जो लोग बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में बुलाने के लिए आतुर हैं, उनके लिए पलक पावड़े बिछा रहे हैं, उन्हें एक बार भोपाल गैस त्रासदी को याद कर लेना चाहिए। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कितनी अमानवीय हो सकती हैं, इसका प्रमाण है भोपाल गैस त्रासदी।
इतने लोग मारे गए, इतनी पीढ़ियाँ विकलांग हुईं लेकिन यूनियन कार्बाइड को न इसकी कोई कीमत चुकानी पड़ी और न ही उसे और उसे खरीदने वाली डाऊ कंपनी पर इसका कोई दुष्प्रभाव पड़ा।
बुरी तरह झुलसे लोगों की मदद के लिए कंपनी अपनी तरफ से आगे नहीं आई और उसने जो कुछ मुआवजा दिया भी, वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही दिया। एक तरफ हम विश्वशक्ति बनने का दावा कर रहे हैं, वहीं हम अपने नागरिकों के जान की कोई कीमत नहीं समझते।
कायदे से तो इस कंपनी को बंद करना चाहिए था, उसकी बिक्री नहीं होने देना चाहिए थी और उसके खिलाफ कड़ा मुकदमा चलना चाहिए था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यूनियन कार्बाइड ने अपने पापों को ढँकने के लिए डाऊ को अपने अधिकार बेच दिए।
सारा कुछ बेशर्मी के साथ चलता रहा और कहीं से इसे रोकने की कोशिश नहीं की गई। आज हममें से बहुत से लोग जानते हैं कि भोपाल गैस त्रासदी से बचा जा सकता था, अगर कंपनी ने अपनी जिम्मेदारियों और सुरक्षा तंत्र को पुख्ता रखा होता। भोपाल में लोगों की जान के साथ इस कंपनी ने खेल खेला, जिसका नासूर कई पीढ़ियों को ढोना पड़ रहा है।
आज इस भयानक दुर्घटना के बाद बचे हुए पीड़ित यह कह रहे हैं कि उन्हें यह सजा मंजूर नहीं है और यह उनके जख्मों पर तेजाब छिड़कने जैसा है, तो इसमें सच्चाई है। कल्पना करिए कि अगर ऐसी कोई दुर्घटना अमेरिका या किसी भी विकसित देश में हुई होती तो उनके पीड़ितों को भी क्या इसी तरह 26 साल तक अपमान और उपेक्षा का घूँट पीना पड़ता?
आज जब हम देखते हैं कि भोपाल गैस त्रासदी में अपनी पूरी पीढ़ी को खोने वाले एक बुजुर्ग को 300 रुपए मिलते हैं तो समझ में आता है कि उसकी आँखों में इतनी गहरी निराशा क्यों है। भारत में जहाँ इस त्रासदी से पीड़ित मेज से गिरे टुकड़ों पर जी रहे हैं, वहीं किसी विकसित देश में ऐसी ही घटना का पीड़ित आज करोड़पति हो गया होता।
भारत में तो पीड़ितों को जिंदा रहने के लिए, इलाज के लिए, जहरीले पानी से मुक्ति के लिए खुद इतने लंबे आंदोलन करने पड़े, यात्राएँ करनी पड़ीं कि एक तरह से वे ही इस दुर्घटना के पीड़ित और आरोपी भी हो गए क्योंकि सजा तो वे ही पिछले 26 सालों से भोग रहे हैं।
एक बड़ा सवाल यह है कि जिस तरह से भोपाल में यूनियन कार्बाइड परिसर और उसके आसपास का पूरा इलाका जहरीला बना हुआ है, इसे अब तक क्यों नहीं ठीक किया गया? क्या हमारा विज्ञान पंगु है, क्या इस दिशा में सरकार को वैज्ञानिकों को नहीं लगाना चाहिए था? क्या दोषी कंपनी को इस जहर का काट विकसित करने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए था?
ऐसा लगता है कि हमारी सरकारें और न्यायपालिका यह मानकर चलती है कि जो लोग शोर मचा रहे हैं, वे मचाते-मचाते एक दिन थक जाएँगे। हमारा तंत्र रेत के नीचे अपनी गर्दन छुपा लेने में माहिर है और लोग जो लोग आवाज उठाते हैं, वे हाशिए पर फेंक दिए जाते हैं। आज भी हमारे इर्द-गिर्द कितने भोपाल हैं, जिन पर किसी की निगाह नहीं। क्या हम फिर किसी रिसाव, किसी भोपाल गैस त्रासदी के होने के इंतजार में जिंदा हैं?

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