सोमवार, 13 दिसंबर 2010

सेवा ही धर्म है

एक बार राजेंद्र प्रसाद ट्रेन के तीसरे दर्जे में बैठ कर कहीं जा रहे थे। गर्मी का महीना था। गाड़ी में भी
ड़ बहुत थी। ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। संयोग से उसी समय प्लैटफॉर्म के दूसरी ओर भी एक गाड़ी आकर रुकी। उसमें भी बहुत भीड़ थी। राजेंद्र बाबू ने देखा कि दूसरी ट्रेन के एक डिब्बे में लोग पानी के लिए चिल्ला रहे हैं। चूंकि भीड़ बहुत ज्यादा थी इसलिए वे डिब्बे से नीचे उतर नहीं सकते थे। कोई उन पर ध्यान नहीं दे रहा था। तभी राजेंद्र बाबू की नजर एक महिला पर गई जो अपने छोटे बच्चे को गोद में लिए खिड़की से पानी-पानी चिल्ला रही थी। प्यास से बच्चा रो रहा था। उसकी तरफ भी किसी का ध्यान नहीं जा रहा था।
राजेंद्र बाबू से रहा नहीं गया। वह अपने डिब्बे के लोगों को धकियाते हुए किसी तरह नीचे उतरे और दौड़ कर नल से अपने लोटे में पानी भरकर उसे दिया। तब तक उनकी गाड़ी खुल गई। लेकिन दौड़ कर किसी तरह उन्होंने अपनी ट्रेन पकड़ ली। उनकी सीट के बगल वाले व्यक्ति ने कहा, 'आप तो दुबले-पतले कमजोर आदमी हैं। इस तरह जोखिम उठा कर आप को ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखना तो सरकार का काम है।' राजेंद्र बाबू बोले, 'भइया, जब हम लोग ही दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो सरकार क्या करेगी। उसको क्यों दोष देते हो। वैसे भी प्यासे को पानी पिलाना तो पुण्य का काम है। आप तो हट्टे-कट्टे हो। आपको यह काम सबसे पहले करना चाहिए था।'
बातचीत में जब उस व्यक्ति को मालूम हुआ कि यह सज्जन कोई और नहीं राजेंद्र बाबू हैं, तो वह शर्मिंदा हो गया और उसने राजेंद्र बाबू से क्षमा मांगी। राजेंद्र बाबू ने कहा, 'अरे इसमें क्षमा मांगने की क्या बात है। आज से तुम भी प्रण कर लो कि जरूरतमंद की सेवा का कोई अवसर नहीं छोड़ोगे। सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।' उस व्यक्ति ने वैसा ही करने का वचन दिया।

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