शनिवार, 15 जनवरी 2011

'आई लव गांव'

एक दिन मैंने मेट्रो स्टेशन पर लड़के-लड़कियों के एक ग्रुप को बात करते सुना। एक लड़की अपने इंग्लिश एक्सेंट में कह रही थी- 'ओ माई गॉड, आई लव गांव, कितने क्यूट होते हैं गांव, वहां खेत होते हैं, नदियां होती हैं, इट्स सो गुड टु बी इन गांव।' पता नहीं उस लड़की को गांवों की तल्ख सचाइयों का पता था या नहीं। शहरी लोग अक्सर गांव के बारे में दो तरह की धारणा रखते हैं। या तो उन्हें गांव बड़े रोमांटिक नजर आते हैं या फिर एकदम बदसूरत। ग्रामीणों के प्रति उनकी सामान्य राय यही होती है कि वे बेहद पिछड़े होते हैं। 'गंवार' शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करने के पीछे यही धारणा काम कर रही होती है।
दरअसल गांवों और शहरों के बीच इतना अपरिचय है कि उन्हें लेकर प्राय: हम अतिवाद का शिकार हो जाते हैं। बीते दिनों एक रियलिटी शो में प्रतिभागियों को ग्रामीण बनकर रहने का टास्क दिया गया था। इस टास्क के तहत उन्हें गोबर उठाना, एक गाय का रख-रखाव करना, गोबर की थापियां बनाना जैसे काम करने थे। लेकिन इस धारावाहिक में सभी प्रतियोगी ग्रामीण भाषा का हंस-हंस कर इस तरह प्रयोग कर रहे थे, जैसे उस भाषा का मजाक उड़ा रहे हों। उसके पहले भी ग्रामीण परिवेश पर आधारित एक और रियलिटी शो देखने को मिला था, जिसमें कुछ अभिनेत्रियों को ग्रामीण परिवेश में वहीं के तौर- तरीकों के अनुसार रहना था। लेकिन इन शहरी लड़कियों ने आपसी झगड़े में एक दूसरे से गाली-गलौज शुरू कर दी। शायद इनकी नजर में गाली ही ग्रामीण भाषा का पर्याय थी। जब भी सीरियल या फिल्म निर्माता गांवों के बारे में सोचते हैं तो उन्हें दो ही वर्ग नजर आते हैं, एक तो दीन-हीन किसान और दूसरा बंदूक उठाए भूमिपति या जमींदार। क्या इन्हें नहीं मालूम कि गांवों का सामाजिक समीकरण कितना बदल गया है?
सच कहा जाए तो गांवों को केवल दयाभाव या घृणा से भरकर देखने के कारण ही हमें उनकी सच्ची तस्वीर का पता नहीं चल पाता। आजादी के बाद से विकास का जो पैटर्न रहा है उसने गांवों और शहरों के बीच की खाई को काफी बढ़ा दिया है। सरकारी नीतियों में भी गांवों के प्रति कृपा भाव ही ज्यादा झलकता है। सारी योजनाओं का मकसद यही लगता है कि ग्रामीण लोग बस किसी तरह जीवित रहें। न तो खेती को लाभप्रद बनाने की कोशिश की जा रही है न ही गांवों के आधुनिक तरीके से विकास की कोई योजना बन पा रही है। शायद इसीलिए शहरी समाज गांवों को लेकर बहुत सहज नहीं हो पाया है। गांव उनके लिए कौतूहल का विषय बने हुए हैं। जैसे बहुत दूर की कोई चीज हो, कुछ-कुछ फैंटेसी की तरह। सचाई यह है कि शहरों में रहने वाले लोग या उनके पूर्वज किसी न किसी गांव से ही आए हैं। पर यहां सबकी कोशिश यही होती है कि वह अपने ऊपर से गांव की छाप को पूरी तरह मिटा डाले। महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत गांवों में बसता है। पर लगता है आज का विकसित भारत गांवों को ठीक से पहचानता भी नहीं चाहता।

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