रविवार, 16 जनवरी 2011

भागवत १६६ से १६८:L राजा जनक के पास क्यों गए शुकदेवजी?

हमारे पुराण पुरुष श्री शुकदेवजी ने अपने पिता परम ज्ञानी श्री वेदव्यासजी से एक दिन प्रश्न किया कि मैं कौन हूं? उन्होंने उत्तर दिया-जो ब्रह्म आनन्द और विज्ञान-स्वरूप है, चित्त के द्वारा सारे संकल्पों को देना ही मानों उसे ग्रहण कर लेना है, जिसके संकोच से जगत का विनाश और विकास से निर्माण होता है, वही सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म मैं हूं, दूसरा नहीं।

इस उत्तर से श्री शुकदेवजी संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सोचा यह तो मैं पहले ही जानता था। इसमें इन्होंने कौन सी नई बात बता दी। श्री शुकदेवजी को यह भ्रम होना स्वाभाविक था, क्योंकि निकटतम व्यक्ति द्वारा दिया गया ज्ञान मोहजनित होने के कारण अज्ञान के आवरण से ढंका रहता है। श्री व्यासजी शुकदेजी के मन की बात जान गए, उन्होंने राजा जनक के पास उन्हें मिथिलापुरी भेजा और कहा कि राजा विदेह के पास जाओ और ज्ञानार्जन करो।
पिता के निर्देश पर श्री शुकदेवजी विदेह नगर पहुंचे। श्री शुकदेवजी ने राजप्रसाद के द्वारपाल के माध्यम से महाराज जनक के पास अपने आगमन का संदेश पहुंचाया।
संदेश सुनकर राजा जनक ने उन्हें वहीं द्वार पर ठहरने के लिए कहलवाया। साधारण जनों के मध्य की बात होती तो राजा जनक के इस व्यवहार पर कुछ आपत्ति ज्ञानियों के मध्य की बात थी। अत: इस व्यवहार से न द्वारपाल चकित थे और न ही श्रीशुकदेवजी, यह प्रथम परीक्षा थी। सात दिन तक द्वार पर ही रहकर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। ज्ञानार्जन हेतु धैर्य परीक्षण का यह पहला सोपान कहा जा सकता है।

माखन की नहीं मन की चोरी करते हैं श्रीकृष्ण
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि महर्षि वेदव्यास ने शुकदेवजी को ज्ञान प्राप्त करने के लिए राजा जनक के पास भेजा। जनक ने सात दिनों तक शुकदेवजी को महल के द्वार पर ही खड़ा रखा। फिर प्रांगण में उन्हें ठहरने के लिए कहा गया। प्रांगण में राजा का वैभव देखकर भी शुकदेवजी भ्रमित नहीं हुए। प्रांगण से चारों ओर देखना सहज सम्भव था। मतिभ्रम की स्थिति से परे बुद्धि इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान प्राप्ति हेतु बुद्धि बिलकुल निर्मूल हैं, स्वच्छंद है और धुंध रहित है।

इस प्रकार एक सप्ताह और बीता, तत्पश्चात उन्हें अन्त:पुर में लाया गया, जहां राजप्रसाद की युवतियां उनकी सेवा में लगी थी। नाना प्रकार भोज्य तथा भोग-सामग्री से उनका सत्कार किया गया। श्री शुकदेवजी इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनकी समभाव-स्थिति बनी रही। जब राजा जनक ने श्री शुकदेवजी की इस परमोच्च स्थिति को जान लिया, तब उन्होंने उनसे भेंट की और उनका सत्कार किया। इस कथा से स्पष्ट होता है कि स्व-स्वरूप जानने के लिए मोह-त्याग, धैर्य-धारण, निर्मल मन-बुद्धि तथा समभाव के सोपानों से गुजरकर जनक जैसे गुरुके समक्ष पहुंचना होगा। मन प्रभु को देना पड़ेगा, तो प्रभु हमारे हो जाएंगे।
माखन चोरी की लीला का यही रहस्य है। मन माखन है। मन की चोरी ही तो माखन चोरी है। कृष्ण औरों के चित चोर लेते हैं फिर भी पकड़े नहीं जाते। हमारी तैयारी होना चाहिए मन देने की।

माखन क्यों चुराते थे श्रीकृष्ण?
जब बालकृष्ण थोड़े बड़े हुए तो अपने साथियों के साथ ब्रज धाम में लीलाएं करने लगे। अपने गरीब बालग्वालों को माखन खिलाने के लिए माखन चुराने लगे। इससे गोपियों को भी आनंद आने लगा। गोपियों ने प्यार से श्रीकृष्ण का नाम माखनचोर रख दिया। जब यह बात यशोदा को पता चली तो वे श्रीकृष्ण पर गुस्सा करने लगीं। वे अपने लाला से आग्रह करने लगीं कि बाहर का नहीं घर का माखन ही अच्छा है।

फिर यशोदाजी ने सोचा-घर का कामकाज नौकर संभालते हैं इसीलिए शायद लाला को घर का माखन पसंद नहीं है और माखन की चोरी करता फिरता है। आज मैं स्वयं ही मन्थन करके माखन बनाकर उसे खिलाऊंगी और तृप्त करूंगी।प्रात:काल में स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर पीला वस्त्र पहनकर यशोदाजी दही मंथन के काम में लग गईं। यशोदाजी कन्हैयाजी को याद कर रही थीं सो इस काम में भक्ति भी मिली हुई थी। हमें व्यवहार को भक्तिमय बनाना है हमारा प्रत्येक व्यवहार ऐसा हो कि वह भक्तिमय बन जाए तो ही सार्थकता है।
यह काम भक्त ही कर सकता है। भक्त और साधक का अंतर गोकुल में नजर आता है। आज भक्ति की साक्षात प्रतिमा बनकर भक्त के रूप में यशोदाजी बैठी हैं।माता यशोदा पुष्टि भक्ति का स्वरूप हैं। उनके दर्शन पाएंगे तो कृष्ण के दर्शन हो सकेंगे। यशोदा साधक हैं दही मंथन साधन है, श्रीकृष्ण साध्य हैं। साधना ऐसी करो कि साध्य अपने आप आए। साधना तन्मय हो तो साधक को साध्य स्वयं आकर जगाता है। यशोदा की भक्ति देखकर कृष्ण ने पीछे से आंचल पकड़ लिया। तुम भी सेवा साधना में ऐसे डूब जाओ कि साध्य स्वयं तुम्हारे द्वार पर आ जाए और यही पुष्टि भक्ति है।

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