शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

मन के हारे हार है...

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इस साधारण-सी कहावत का जन्म कई महत्वपूर्ण श्लोकों से गुजरकर हुआ है। सभी धर्मों ने अपने साधकों को घुमा-फिराकर मन पर ला टिकाया है। जो अपने मन से हारा वो चाहे बाहर दुनिया जीत ले फिर भी पराजित ही माना जाएगा और जिसने मन को जीत लिया वह विश्वजीत हो जाएगा।
हनुमानजी को जब लंका में पहली बार प्रवेश करना था तो वे जानते थे कि लंका भोग और विलास का केन्द्र है। यहां सबसे अधिक मन को नियंत्रण में रखना होगा। हनुमानजी का सिद्धांत था मन को नियंत्रण में रखने के दो तरीके हैं-पहला है अभ्यास और दूसरा है वैराग्य। महर्षि पतंजलि ने भी लिखा है 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:'। मन के लिए सबसे अच्छा अभ्यास है 'सतत् नाम जप'। 24 घंटे में कुछ समय निकाला जाए जब प्रत्येक सांस के साथ विचार न लेते हुए 'नाम जप' किया जाए। यह नाम गुरु मंत्र हो सकता है। ईश्वर की स्मृति के लिए कई शब्द हो सकते हैं लेकिन उस समय मन को विचारों से मुक्त रखा जाए। धीरे-धीरे जीवन के सभी कार्य करते हुए यह जप भीतर-भीतर चलने लगता है। इस अभ्यास से मन को नियंत्रित करने में सुविधा रहती है। दूसरा तरीका है वैराग्य। वैराग्य का यह अर्थ नहीं है कि दुनिया छोड़कर साधु बाबा बना जाए। अध्यात्म ने तो कहा है हर साधक की छ: सम्पत्तियां होती है-शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान, श्रद्धा। उपरति का अर्थ है वैराग्य। भोग और विलास के प्रति सजगता का दूसरा नाम वैराग्य है। वैराग्य आते ही कामनाएं और तृष्णाएं वश में होने लगती हैं। यहीं से भ्रम और द्वंद समाप्त होते हैं। उलझनें मिटने लगती हैं। यह स्पष्ट होने लग जाता है जो सही है वही करना है जो गलत है उसे करना तो दूर उसे चिंतन में भी नहीं लाना है। वैराग्य ऐसी स्पष्टता भी देता है। हनुमानजी ने लंका प्रवेश के पहले इन दोनों बातों को साध लिया था।
(www.bhaskar.com)

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