शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

भागवत १९०: खोलें अपने मन की आंखें

अधिक ज्ञान हो तो बुद्धि और मन पर हावी हो जाता है। मन भक्ति में लीन है लेकिन बुद्धि ने उस पर अंकुश लगा दिया। भक्ति में भी होशोहवास जरूरी है, कब किस रूप में भगवान आपके सामने आ गए जाएं, यह कोई चेतन बुद्धि वाला ही समझ सकता है। मन की आंखें अगर बुद्धि ने बंद कर दी हो तो भगवान को पहचानना मुश्किल होता है, क्योंकि बुद्धि अपने सामने आई हर वस्तु को अपनी कसौटी पर परखती है। मन सीधे अपनाना है। साधना में होश जरूरी है। इसे ही आत्मानुशासन कहा गया है।
ब्राह्मणियों का भोग-एक बार ग्वालों को वन में मधुर फल खाने के साथ मिष्ठान्न खाने की भी इच्छा हुई। कृष्ण को ध्यान आया कि ब्राह्मणियां मिष्ठान्न तैयार कर रही हैं। श्रीकृष्ण ने ग्वाबालों को उनके पास भेजा। जब उन्होंने श्रीकृष्ण का नाम लिया तो ब्राह्मणियां स्वयं मिष्ठान्न लेकर उपस्थित हो गईं।
आईये इस प्रसंग का आनन्द लें।ग्वालबालों ने कहा-नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है। अत: तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो।
श्रीकृष्ण बोले-यहां से थोड़ी दूर पर वेदवादी ब्राम्हण स्वर्ग की कामना से आंगरस नामक यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ। मेरे भेजने से वहां जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान् बलरामजी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भात-भोजन की सामग्री मांग लाओ। जब भगवान् ने ऐ आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राम्हणों की यज्ञशाला में गए और उनसे भगवान् की आज्ञा के अनुसार ही अन्न मांगा।
भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण गौएं चराते हुए यहां से थोड़े ही दूर पर आए हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आप लोग उन्हें थोड़ा सा भात दे दें। ब्राम्हणों! आप धर्म का मर्म जानते है। यदि आपकी श्रद्धा हो तो उन भोजनार्थियों के लिए कुछ भात दे दीजिए।
परीक्षित! इस प्रकार भगवान् के अन्न मांगने की बात सुनकर भी उन ब्राम्हणों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिए बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राम्हण ज्ञान की दृष्टि से थे बालक ही, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें