बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

भगवत १९१ से १९३: प्रभु मिलन के लिए जरूरी है प्रेम

जब भगवान के प्रति प्रेम जागृत हो जाए तो सबसे कठिन होता है उसे प्रकट करना। प्रेम है तो फिर कोई भय नहीं होना चाहिए। परमात्मा के प्रति प्रेम होने के बाद भी अगर मन में कोई भय, शंका हो तो समझिए प्रेम अभी पूर्णत: जागृत नहीं हुआ क्योंकि परमात्मा के प्रति प्रेम से तो स्वयं मृत्यु का भय भी चला जाता है। गृहस्थी में परमात्मा के मिलने की संभावना रहती है, यह प्रसंग, यही बात बता रहा है। इसमें वैराग्य की बड़ी भूमिका है।
ब्राम्हण चूक गए और उनकी पत्नियों में वैराग्य जागा था। थोड़ा वैराग्य और गृहस्थाश्रम को समझ लें। इधर जब ब्राम्हणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्य की सी लीला करते हुए भी रामेश्वर ही हैं। जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियों के हृदय में तो भगवान् का अलौकिक प्रेम है और हम लोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे। कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही-यद्यपि ये स्त्रियां हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है। उसी से इन्होंने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फांसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती। उपवास, परमात्मा की प्राप्ति के ये कठिन मार्ग हैं। इन मार्गों की बाधा दूर करने का सबसे आसान रास्ता है प्रेम।

परंपरा के नाम पर ना करें अंधविश्वास
कृष्ण समझा रहे हैं कि भगवान तो हमारे मध्य ही हैं। ये नदियां, वन, पर्वत जो हमारी रक्षा भी करते हैं और पालन भी। हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए, प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सावधान भी रहना चाहिए। हमें जीवित रखने के लिए ये उपयोगी चीजें देते हैं और मौसम को भी हमारे अनुकूल रखते हैं। कृष्ण के इस संदेश में उनका पर्यावरण प्रेम भी छुपा हुआ है।कृष्ण यह संदेश भी दे रहे हैं कि हर जो घटना हमारे सामने घट रही है, उसे ऐसे ही न हो जाने दें। परम्परा के नाम पर जो गलत हो रहा, धर्म सम्मत नहीं है उसका विरोध भी आवश्यक है। धर्म के नाम पर केवल अनिष्ट के भय से, देवताओं के डर से हम कोई कृत्य न करें।
भगवान् अब श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएं कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहां के सब गोप इन्द्र यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। कृष्ण ने कहा-यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अत: इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं वह सुहृदों के साथ विचारित शस्त्र सम्मत है अथवा लौकिक ही है। मैं यह सब जानना चाहता हूं आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।
नन्दबाबा ने कहा-बेटा! भगवान् इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाला जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान् इन्द्र की यज्ञों के द्वारा पूजा किया करते हैं।
श्रीकृष्ण ने कहा-पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है। जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है? पिताजी! इसलिए मनुष्य को चाहिए कि पूर्व संस्कारों के अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है।
बालक कृष्ण की ऐसी बातें सुनकर व्रजवासी आश्चर्य में पड़ गए। कृष्ण ने गोर्वधन की पूजा कराई। उसको भोग ग्रहण कराया। गिरिराज महिमा का गान किया। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्ण के साथ सब व्रज में लौट आए।जब इन्द्र को विदित हुआ तो वह रूष्ट हो गया। उसने ब्रज क्षेत्र में वृष्टि का प्रलय मचा दिया।

यशोदा ने कन्हैया से पूछा, क्यों रे तू किसका बेटा है?
यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलरामजी ने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया तथा आशीर्वाद दिए। इन्द्र नीचे आया। भगवान् से कहा आप लीला कर रहे हो पर मेरी व्यवस्था क्यों उठा रहे हो। कृष्ण ने कहा तुम गलत काम कर रहे हो। पानी के नाम पर लोगों से सौदा मत करो। तुम्हारा काम है वर्षा करना, तो वर्षा करनी पड़ेगी। जो लोग अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए यह उम्मीद करते हैं कि लोग उनकी पूजा करें वह गलत है। आपको आपका कर्तव्य निभाना है। अकारण पूजित होने का प्रयास मत करो। इन्द्र चला गया।
कृष्ण ने सम्पूर्ण सृष्टि को इस प्रसंग से शिक्षा दी कि प्रकृति, मानव जाति और समाज के प्रति हमारा जो कर्तव्य है उसे हम सेवा मानकर करें। मन में यह अहंकार नहीं आए कि हम किसी पर कृपा कर रहे हैं। कोई हमारे कर्तव्य पालन के लिए हमें पूजे या उपहार दे। हमारा जो कर्तव्य है उसे हम नि:स्वार्थ भाव से पूरा करें, किसी से भेदभाव किए बिना करें। भगवान होने की आशंका (काला क्यों)-गोवर्धन लीला के बाद कुछ लोगों का आशंका हुई कि यह कन्हैया शायद ईश्वर है, तो एक सभा-सी हुई और चर्चा चल पड़ी कि ये सात बरस का लड़का और कहां ये भारी भरकम गोवर्धन पर्वत? यह नन्दजी का ही पुत्र है या कहीं से उठाकर लाया गया है? नंदजी से पूछते हैं कि यह लड़का किसका है। नन्दबाबा ने कहा मेरा पुत्र है। गर्गाचार्य ने बताया था कि कन्हैया में नारायण जैसे गुण हैं। यशोदा ने चर्चा सुनी तो कन्हैया से पूछा कि क्यों रे तू किसका बेटा है। कन्हैया ने कहा तेरा ही तो हूं मैं।
यशोदा बोली-लोगों का कहना है कि मैं और तेरे पिताजी गोरे हैं फिर भी तू काला क्यों है। कन्हैया बोला मां जन्म के समय तो मैं गोरा था किन्तु तेरी भूल के कारण मैं काला हो गया। मेरा जब जन्म हुआ था तब बड़ा अंधेरा छाया हुआ था और सभी नींद में डूबे हुए थे। मैं अधेरे में सारी रात करवटें बदलता रहा, सो अंधेरा मुझसे चिपक गया और मैं काला बन गया। भोली यशोदा ने कन्हैया की बात सच्ची मानी। हां सचमुच 12 बजे तक मैं जाग रही थी और उसके बाद न जाने क्या हुआ। मेरी ही भूल के कारण कन्हैया काला हो गया। भक्ति और प्रेम दोनों ऐसे होते हैं, जो हमारा इष्ट कह दे वही सत्य मान लिया जाता है। भक्ति और प्रेम दोनों ही तर्क और बुद्धि से परे हैं। कृष्ण के प्रेम और भक्ति में आकंठ डूबे नंद-यशेदा को कान्हा की बात एकदम ठीक लगी, बालक होने पर भी उन्होंने कृष्ण से कोई तर्क नहीं किया।
शेष लोगों ने अपने हिसाब से ही कृष्ण के काले रंग के कारण को खुद का प्रेम समझ लिया। एकनाथजी महाराज एक नया कारण बताते हैं। मनुष्य का रंग काला है क्योंकि उसमें पहले काम रहता है।श्रीकृष्ण कीर्तन, ध्यान, धारणा, स्मरण चिन्तन करने वाले की कालिमा कन्हैया खींच लेता है। वैष्णवों के हृदय को उज्जवल करते-करते कन्हैया काला हो गया था। गोपियों का कहना है हम आंखों में काजल लगाती हैं। कन्हैया हमारी आंखों में बसा रहता है सो काजल से काला हो गया। राधा ने एक बार प्यार से पूछा-नाथ वैसे तो तुम सुन्दर हो किन्तु श्याम क्यों हो? कृष्ण बोले वैसे तो मैं गौरा ही था किन्तु राधे आपकी शोभा को वृद्धिगत करने के लिए श्याम हो गया हूं। आपका सौंदर्य बढ़ेगा तो लोग आपकी प्रशंसा करेंगे। यदि हम दोनों ही गोरे होते तो आपकी प्रशंसा कौन करता। ऐसी अनेक लीलाएं भगवान् ने की हैं।

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