मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

भागवत १८७: खो जाइए संगीत में कृष्ण अपने आप मिल जाएंगे

भक्ति का एक अंग संगीत है, जो हमेशा भगवत ध्यान में लीन रहते हैं लेकिन भगवान के स्वरूप में लीन नहीं हो पाते, हमेशा भगवान को चेतन-अवचेतन रूप में अपने भीतर और खुद को भगवान में खो देना चाहते हैं, संगीत उनके लिए श्रेष्ठ उपाय है। भजन का यही मतलब है, आप संगीत की स्वर लहरियों में खुद को भिगो लीजिए और अपने आपको भगवान में रमा दीजिए।
वेणू गीत जैसे प्रसंग बताते हैं कि यहां आकर बुद्धि को विश्राम देना होगा। बुद्धि का अपना महत्व है। वेणुगीत-ब्रज की कुमारियां कृष्ण को ही पति के रूप में प्राप्त करने के अगहन मास में कात्यायिनी का व्रत किया करती थीं। वे नित्य की भांति तट पर स्नान करने गईं, रास लीला में जाना है कि सभी दुर्गुणों का पहले नाश करिए। दुर्गुण रहित होने पर ही जीव कृष्ण लीला में स्थान पा सकता है।
कन्हैया की बांसुरी सुनकर उसकी मधुर तान का जो वर्णन किया गया है, वही वेणु गीत कहलाता है।
वेणुगीत यानी अब भक्ति में भजन का प्रवेश हो रहा है। कृष्ण तो सम्पूर्ण कलाओं के अवतार हैं। बंसी की मधुर तान गोपियों और कृष्ण प्रेम में डुबे ब्रजवासियों को भक्ति रस में भिगो रही है।
शरद् ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाषयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान् श्रीकृ्रष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेष किया।
मधुपति श्रीकृष्ण ने बलरामजी और ग्वालबालों के साथ उसके भीतर घुसकर गौओं को चराते हुए अपनी बांसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी। श्रीकृष्ण की वह वंशी कीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी (उसे सुनकर गोपियों का हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया) वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण और वंशीध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगीं।
अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिन्हों से यह चिन्हित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजन मोहिनी मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी ताल पर नाचने लगते हैं।
वृन्दावनविहारी श्रीकृष्ण की ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएं हैं। गोपियां प्रतिदिन आपस में उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान् की लीलाएं उनके हृदय में स्फुरित होने लगतीं।

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