रविवार, 20 फ़रवरी 2011

भागवत १९६: सुन्दरता के घमंड में किसी का मजाक ना बनाए

शरीर और आत्मा दोनों ही परमात्मा की ही देन है। कई बार हम चित्त पर इतने आवरणों को धारण कर लेते हैं कि हमें अपनी नश्वर काया पर अभिमान होने लगता है। कई बार हम जाने अनजाने घमंड में किसी के दिल को चुभने वाली बात बोल जाते हैं जो उसके दुख का कारण बन जाती है।

एक बार नन्दबाबा आदि गोपों ने शिवरात्रि के अवसर पर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्द से भरकर बैलों से जुती हुई गाडिय़ों पर सवार होकर अम्बिका वन की यात्रा की। वहां उन लोगों ने सरस्वती नदी में स्नान किया। उस अम्बिका वन में एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजी को पकड़ लिया। अजगर के पकड़ लेने पर नन्दरायजी चिल्लाने लगे-बेटा कष्ण! कृष्ण! दौड़ो-दौड़ो। देखा बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरण में हूं। जल्दी मुझे इस संकट से बचाओ। नन्दबाबा का चिल्लाना सुनकर सब के सब गोप एकाएक उठा खड़े हुए और उन्हें अजगर के मुंह में देखकर घबरा गए।
अब वे लकडिय़ों से उस अजगर को मारने लगे किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलने पर भी अजगर ने नन्दबाबा को छोड़ा नहीं। इतने में ही भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ने वहां पहुंचकर अपने चरणों से उस अजगर को छू दिया।भगवान के श्रीचरणों का स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गए और वह उसी क्षण अजगर का शरीर छोड़कर रूपवान बन गया। उस पुरुष के शरीर से दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोने के हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर भगवान् के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा- तुम कौन हो?अजगर के शरीर से निकला पुरुष बोला- भगवन मैं पहले एक विद्याधर था। मेरा नाम सुदर्शन था। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमान पर चढ़कर यहां से वहां घूमता रहता था। एक दिन मैंने अंगिरा गोत्र के कुरूप ऋषियों को देखा। अपने सौन्दर्य के घमंड से मैंने उनकी हंसी उड़ायी। मेरे इस अपराध से कुपित होकर उन लोगों ने मुझे अजगर योनि में जाने का शाप दे दिया। यह मेरे पापों का ही फल था।

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