देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबा के पास आए और गले लगाया। नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों को इस प्रकार समझा बुझाकर व्रज भेजा।
श्रीकृष्ण ने अपना उपदेश जीवन में उतारा। उन्होंने गीता में निष्काम कर्म का उपदेश दिया।इसके बाद वसुदेवजी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणों से दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्गजी से संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्व को प्राप्त हुए।
कृष्ण जो सर्वज्ञ हैं, वे भी शिक्षा ग्रहण करने गुरू के पास आए हैं। हर व्यक्ति के जीवन में गुरू का महत्व है। हम कितने भी ज्ञानी क्यों न हों, उस ज्ञान को जब तक कोई सही दिशा देने वाला न हो वह बेकार है। गुरू हमारा मार्गदर्शक होता है जो जीवन के व्यवहारिक और सैद्धांतिक दोनों पक्षों में हमें सही दिशा बताता है। यहां से कथा नया मोड़ लेने जा रही है, कृष्ण अब अपने गुरू की सेवा में हैं।
यहां वे सारी कलाएं सीखेंगे। अब वे दोनों गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनि के पास गए जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे।वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुख, संयत, अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियमित रक्खे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरु की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिए, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्ति से इष्टदेव के समान उनकी सेवा करने लगे।
सान्दीपनि ने दोनों भाइयों को छहों अंक और उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनके सिवा मन्त्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी। उन्होंने गुरुजी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्याएं सीख लीं। केवल चौसठ दिन-रात में ही संयमी शिरोमणि दोनों भाइयों ने चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
(www.bhaskar.com)
श्रीकृष्ण ने अपना उपदेश जीवन में उतारा। उन्होंने गीता में निष्काम कर्म का उपदेश दिया।इसके बाद वसुदेवजी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणों से दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्गजी से संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्व को प्राप्त हुए।
कृष्ण जो सर्वज्ञ हैं, वे भी शिक्षा ग्रहण करने गुरू के पास आए हैं। हर व्यक्ति के जीवन में गुरू का महत्व है। हम कितने भी ज्ञानी क्यों न हों, उस ज्ञान को जब तक कोई सही दिशा देने वाला न हो वह बेकार है। गुरू हमारा मार्गदर्शक होता है जो जीवन के व्यवहारिक और सैद्धांतिक दोनों पक्षों में हमें सही दिशा बताता है। यहां से कथा नया मोड़ लेने जा रही है, कृष्ण अब अपने गुरू की सेवा में हैं।
यहां वे सारी कलाएं सीखेंगे। अब वे दोनों गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनि के पास गए जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे।वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुख, संयत, अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियमित रक्खे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरु की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिए, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्ति से इष्टदेव के समान उनकी सेवा करने लगे।
सान्दीपनि ने दोनों भाइयों को छहों अंक और उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनके सिवा मन्त्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी। उन्होंने गुरुजी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्याएं सीख लीं। केवल चौसठ दिन-रात में ही संयमी शिरोमणि दोनों भाइयों ने चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
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