बुधवार, 9 मार्च 2011

भागवत २०७: जब कृष्ण पहुंच गए यमराज के पास तो....

हमारे धर्म शास्त्रों मै आरूणी और एकलव्य जैसे उदाहरण हैं। जिन्होंने अपने गुरु की आज्ञा को ही हर हाल में सर्वोपरी माना। श्रीकृष्ण तो स्वयं परमेश्वर हैं लेकिन उन्होंने भी गुरु की आज्ञा को सबसे ऊपर माना इसीलिए वे यमराज के घर से भी उनके पुत्र को वापस ले आए।
भागवत में अब तक आपने पढ़ा...शिक्षा के लिए श्रीकृष्ण और बलराम का सान्दीपनि मुनि के आश्रम आना। मात्र चौसठ दिनों में अपनी शिक्षा पूर्ण करना और गुरु दक्षिणा में सान्दीपनि मुनि द्वारा अपना खोया पुत्र मांगना अब आगे... भगवान् ने समुद्र से कहा-समुद्र! तुम यहां अपनी बड़ी-बड़ी तरंगों से हमारे जिस गुरु के पुत्र को बहा ले गए थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो।
मनुष्य वेशधारी समुद्र ने कहा-देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जल में पश्चजन नाम का एक बड़ा भारी दैत्य जाति का असुर शंख के रूप में रहता है। अवश्य ही उसी ने वह बालक चुरा लिया होगा। समुद्र की बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जल में जा घुसे और शंखासुर को मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला। तब उसके शरीर का शंख लेकर भगवान् रथ पर चले आए। वहां से बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने यमराज की प्रिय पुरी संयमनी में जाकर अपना शंख बजाया। शंख का शब्द सुनकर सारी प्रजा का शासन करने वाले यमराज ने उनका स्वागत किया और भक्तिभाव से भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की।
उन्होंने नम्रता से झुककर समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान सच्चिदानंद स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-लीला से ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनों की क्या सेवा करूं?श्री भगवान् ने कहा-यमराज! यहां अपने कर्म बन्धन के अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्म पर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ। यमराज ने जो आज्ञा कहकर भगवान् का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृ्रष्ण और बलरामजी उस बालक को लेकर उज्जैन लौट आए और उसे अपने गुरुदेव को सौंप दिया।

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