रविवार, 13 मार्च 2011

भागवत 208 से 210: ...तब दोनों भाइयों ने शाप के कारण राक्षस का जन्म लिया

शिवजी की कथा सुनने के बाद याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज मुनि को कहा कि मैं अब आपको श्रीराम जी की कथा सुनाता हूं। एक दिन शिवजी की पत्नी पार्वती उनके पास पहुंची। शिवजी ने उनकी पत्नी को आदर से अपनी बांयी ओर बैठने के लिए आसन दिया। जैसे ही वे शिवजी के पास बैठी उन्हें पिछले जन्म की कथा याद आ गई। तब पार्वती जी ने शिव जी से कहा मैं आपके चरणों की दासी हूं।
मैं आप से रामजी की कथा सुनना चाहती हूं। पार्वती द्वारा बहुत विनती करने पर शिवजी उन्हें रामजी की कहानी सुनाने लगे। पार्वती से उन्होंने कहा सुनों पार्वती में तुम्हें रामजी की वही कहानी सुनाता हूं। जो काकभुशुण्डि ने पक्षियों के राजा गरुडज़ी को सुनाई थी। जितनी मेरी समझ में है मैं तुम्हे उतनी कहानी सुनाती हूं। जब धर्म की हानि होती है और राक्षस बढ़ जाते हैं।
वे लोगों पर बहुत अत्याचार करते हैं तब देवता अवतार लेते हैं। मैं उनके एक-दो जन्मों का वर्णन करता हूं। भगवान विष्णु के दो जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण के शाप से राक्षस के रूप में जन्म लिया। एक का नाम था हिरण्यकश्यपु और दूसरा हिरण्याक्ष। वे युद्ध में विजय पाने वाले विश्वविख्यात थे। इनमें से एक को भगवान ने वराह अवतार लेकर मारा, दूसरे का नरसिंह रूप लेकर वध किया।

शांति के लिए त्याग जरूरी है
श्रीकृष्ण बार-बार ब्रजवासियों को याद करके रोते रहते थे, माता-पिता गोपियां याद आ जातीं और वे रो लेते। प्रेमी की विरह में बहने वाले अश्रु सुखदायी से लगते हैं। विरह में आंसू ही साथ देते हैं जीव का ईश्वर स्मरण तो साधारण भक्ति है किन्तु जिस जीव का स्वयं भगवान् स्मरण करें, वह तो असाधारण है। कौन है यह राधा जो हृदय सिंहासन पर आसन जमाकर आपको सताती रहती है।
आपका दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता। यहां उद्धव-कृष्णजी की भक्ति में समर्पण विषय पर सुंदर चर्चा आई है। गोपियों की स्थिति तक पहुंचने की क्रिया में ईश्वर प्रणिधान के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। संतों ने प्रणिधान की व्याख्या में स्पष्ट कर दिया कि निश्चयपूर्वक ईश्वरीय भावना को धारण किया जाए जिससे वृत्तियों का निरोध हो। वृत्तियों का निरोध क्रम से शनै: शनै: या तीव्र गति से अकर्मक स्थिति का निर्माण कर देता है। ईश्वर को ध्यान एक नाम जप द्वारा तथा उसकी शरण में रहकर, सब कर्मों के फल ईश्वर को समर्पित कर धारण किया जाता है।
इसी संदर्भ में गीता के बारहवें अध्याय के श्लोक नौ, दस, ग्यारह व बारह की विवेचना की जाय तो समझना आसान हो जाता है-प्रबल इच्छा की जाय कि भगवत् दर्शन हों, ध्यान किया जाय, इसमें असमर्थता हो तो ईश्वर निमित्त कर्म किए जायें, इसमें असमर्थता का अनुभव हो तो कर्मों के फलों को ईश्वर अर्पण करके त्याग किया जाए, निश्चित है कि त्याग से परम शान्ति मिलती है।
इतना कहते ही श्रीकृष्ण की आंखों में आंसू आ गए
कृष्णजी बोले-उद्धवजी पूरी मथुरा में मेरा दु:ख पूछने वाले एक तुम ही निकले। क्या-क्या बताऊं मैं तुम्हें, मेरे सच्चे माता-पिता तो देवकी व वसुदेव हैं किन्तु गोकुल में रहकर यशोदा नन्दजी भी तो मेरे माता-पिता हैं। मेरी माता मुझे कितने दुलार से खिलाती-पिलाती थी। मुझे अपनी सखियां, अपने मित्र और अपनी गायें बहुत याद आती हैं।
सभी ग्वाल बाल मुझे अपने घरों से लाई हुई खाद्य सामग्री खिलाते थे। कोमल पत्तों से सेज बनाकर सुलाते थे और मेरी गायों की रखवाली करते थे।मैं अपने माता-पिता, मित्रों, सखियों को कैसे भुला दूं।मेरी सखियां, गाय सभी मुझे याद करके रोते होंगे। मैं ब्रज को नहीं भुला पाता।उद्धव कहने लगे, बचपन में गोप बालकों के साथ खेलते रहने की बात तो ठीक है।
किन्तु अब आप मथुरा के राजा हैं और राजा को गोपाल बालक वे कहते हैं-महाराज वहां जाने में मुझे कोई आपत्ति तो नहीं है, किन्तु गांव की अनपढ़ गोपियां कैसे समझेंगी ? मेरे तत्व ज्ञान का उपदेश बड़ा गहन है।सो मेरा जाना वहां निरर्थक ही है।श्रीकृष्ण गोपियों की बुराई सह न सके, उन्होंने उद्धव से कहा उद्धवजी! मेरी गोपियां अनपढ़ नहीं, ज्ञान से परे हैं। वे पढ़ी-लिखी तो अधिक नहीं हैं, किन्तु शुद्ध प्रेम की ज्ञाता हैं।
इसी कारण से तो वे मुझे प्राप्त कर सकी हैं और क्या कहूं।उद्धव गोकुल रवाना-उद्धवजी की तो इच्छा नहीं थी, फिर भी श्रीकृष्ण के कारण वे ब्रज जाने को तैयार हुए। आपका आदेष है तो मैं जाता हूं। मैं वहां नन्दजी, यशोदाजी और गोपालों को उपदेश दे आऊं। मैं जाता हूं।उद्धवजी का रथ चलने लगा, तो श्रीकृष्ण ने उद्धवजी से कहा-मेरे माता-पिता को मेरा प्रणाम कहना और उन्हें आश्वासन देना कि उनका कन्हैया अवश्य आएगा। इतना कहते-कहते ही श्रीकृष्ण को रोना आ गया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें