रविवार, 13 मार्च 2011

भक्ति के बिना ज्ञान घमंडी बनाता है

भगवान पुन: पढ़कर लौटे हैं। मथुरावासियों ने उनका स्वागत किया। राजा उग्र्रसेन स्वयं स्वागत करने आए। कुछ काल मथुरा में रहे, फिर कृष्ण को वृन्दावन की याद आई और उन्होंने उद्धवजी को वृंदावनवासियों की सुधि लेने के लिए भेजा था।उद्धव की कथा वक्ता के लिए एक आव्हान है। दक्षिण के महात्माओं का ऐसा मत है कि इस प्रसंग में ज्ञान और भक्ति का मधुर कलह है। इसमें ज्ञान और भक्ति का समन्वय भी है और उद्धवजी निर्गुण ज्ञान के पक्षधर हैं तो गोपियां शुद्ध प्रेम लक्षणा सगुण भक्ति की।
जीवन संतुलन का नाम है यह इस प्रसंग में दिखेगा।वैसे तो भक्ति और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं, भक्ति ही परिणति है ज्ञान।
उद्धव ज्ञानी तो थे, किन्तु उनके ज्ञान को भक्ति का साथ नहीं था। भक्ति रहित ज्ञान अभिमानी बनाता है। भक्ति ज्ञान को नम्र बनाती है। भक्ति का साथ न हो, तो ज्ञान अभिमान के द्वारा जीव को उद्धण्ड बना देता है।
श्रीकृष्ण अब मथुरानाथ हो गए हैं। यहां ऐश्वर्य का प्राधान्य है। गोकुल के गोपाल अब मथुरा के अधिपति हैं। गायें चराने वाले कन्हैया की अब कई दास-दासियां सेवा कर रही हैं। उद्धवजी भी श्री अंग सेवा करते हैं। सभी प्रकार का सुख और ऐश्वर्य चरणों में स्थित है। जीव ऐश्वर्यमय हो गया किन्तु भगवान ने ब्रजवासियों के प्रेम को भुलाया नहीं। राजप्रासाद की अटारी में बैठकर वे गोकुल की झांकी याद करते रहते हैं। वे बार-बार यशोदाजी को याद करते हैं, वे मेरी प्रतीक्षा में रोती रहती होंगी।
भोली माता मेरे वचन को याद करके राह निहारती होंगी। मेरी प्यारी गायें और उनके बछड़े क्या करते होंगे। मथुरा की ओर मुंह करके मुझे पुकारते होंगे। मेरे बाबा भी मुझे याद करते होंगे। इस प्रकार वे बार-बार सभी को याद करते थे और आंसू बहाते थे।मथुरा में ऐश्वर्य तो था, किन्तु प्रेम नहीं था। प्रभु को तो उनसे प्रेम करने वाले जीव की आवश्यकता है, उनके ऐश्वर्य के प्रेमी की नहीं।

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