मंगलवार, 8 मार्च 2011

ये दो कमजोरियां हमें बना देती हैं अशांत

और दूसरे के अंगों की चाहत, ये दो कमजोरियां मनुष्य को शांत और स्वस्थ बने रहने में बाधक हैं। इन दोनों ही मामलों में मौका मिलते ही आदमी अपनी हदें लांघ देता है। एकांत के अवसरों पर तो जानवरों से भी गया-बीता व्यवहार क्रियाएं करने लगता है।

भजन, पूजन, सत्संग, शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी इन कमजोरियों से पार नहीं पा पाते। भीतरी पवित्रता परिपक्व और स्थाई कैसे रहे इसके लिए भारतीय ऋषियों ने एक दिव्य परंपरा निर्मित की है जिसे गुरु दीक्षा कहा गया है। अलग-अलग संतों ने इसकी अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की है। आज केवल बुद्ध की ही बात लें। उन्होंने दीक्षा के लिए एक शब्द दिया है स्त्रोतापन्न।
यहां स्त्रोत का अर्थ है जल। ऐसा जल जो किसी उद्गम, स्त्रोत से प्रवाहित है, वह है गुरु। इस जल-पान का नाम दीक्षा है। इसे पीने का तरीका होगा। इसे दूर खड़े होकर नहीं पिया जा सकेगा, इसमें उतरना पड़ेगा, उतरे कि भीगे। भीतर-बाहर से भीगे कि दीक्षा घटी। जैसे ही गुरु कृपा हुई आपको पांच अनुभूतियां एकसाथ होंगी, इन्द्रियां वश में आने लगेंगी, मन में प्रसन्नता बढ़ेगी, चित्त की एकाग्रता सधेगी, अंत:करण पवित्र होने लगेगा तथा कभी-कभी आत्म साक्षात्कार भी होने लगेगा। इस सबका लाभ भौतिक जीवन को मिलेगा ही। इसलिए जीवन में गुरु का आना मात्र एक आध्यात्मिक प्रसंग ही नहीं है यह व्यावहारिक घटना भी है। दीक्षा का आत्मबल हमें कमजोरियों से मुक्त करेगा।

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