रविवार, 3 अप्रैल 2011

भागवत २२२ अगर चाहिए सुख तो जीएं कुछ इस तरह

अब सवाल है, कर्म कैसे हों और किस प्रकार उन्हें सम्पादित किया जाए जिससे कि व्यक्ति साधक की श्रेणी में आ जाए और महर्शियों की सनातन परम्परा चलती रहे ताकि परम-सुख का जीवित रहते अनुभव होता रहे? मृत्यु-उपरांत जन्म-मरण का चक्र टूट भी जाए तो भी अचेतन अवस्था में चक्र चलते ही रहते हैं। भगवान् बुद्ध का कथन था-दुख था, दुख है व दुख होगा। माना कि यह निराशा का द्योतक है, किन्तु गहराई से देखें तो सुख में भी दुख ही छुपा रहता है। अनित्य कभी स्थाई सुख नहीं दे सकता।सुख रूप में प्रतीत होने वाला यह सब कुछ दुख है, ऐसा मानने वाला घोर एवं दुस्तर संसार से पार हो जाता है।
इस दर्शन या कथन को हम इस रूप में लें दुख प्रतीत होने वाले से आसक्ति नहीं होती और अनासक्ति की प्रकृति बनती जाती है। किन्तु यह सब भौतिक सुख के विषय में ही लेना ठीक है। आध्यात्मिक सुख-परम सुख तो संसार से पार करने में बाधक नहीं वरन् सहायक ही है।सुख या दुख की अनुभूति कर्म करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को होती है।
लौकिक या भौतिक ज्ञान-विज्ञान (ब्राह्म कर्म) राज्यावस्था, (क्षात्र कर्म) भूमि- उत्पाद से संबंधित कार्य (वैश्य कर्म) तथा अन्य सेवा कार्य के रूप में विभाजित हैं। कभी इनमें, विशेष भारत में, कड़ी सीमा रेखाएं थीं अब श्रम कार्य- विभाजन (डिवीजन ऑफ लेबर) के रूप में स्वीकारा जाता है। कार्य परिवर्तन पहले जड़ था फिर उनमें शिथिलता आई। द्रोणाचार्य, आचार्य कृप आदि ने ब्राह्मण होते हुए युद्ध किया था। विश्वामित्र ब्राह्मण हुए, रावण राजा बना था आदि आदि। इन लौकिक कर्मों का समाज चलाते रखने में महत्व है।
आजीविका के लिए अपनी अपनी योग्यता, देश, काल, परिस्थिति के अनुसार आवश्यक है। इन लौकिक कार्यों के करते सफलता या असफलता, लाभ या हानि, यश या अपयश या कुछ नहीं पल्ले पड़ता है और मन-स्थिति को साम्य बनाए रखने में कर्म के प्रति अनासक्ति बड़ा योगदान देती है। यह तब संभव हो जाता है जब ईश्वरीय शक्ति में विश्वास हो, शुद्ध अटूट आसक्ति हो।कार्य करते हुए कुछ प्राप्ति या फल आकांक्षा रही तो दुख है ही योगी के लक्षण अपने में उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है।

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