गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

भागवत २२६ हर कोई जो करता है ''मैं'' के लिए करता है

यह चोरी उस दिन मिटती है जब तेरे-मेरे का भाव मिट जाता है। मेरे का भाव तिरोहित करना पड़ेगा।समस्त परिग्रह चोरी है। हमारे इस मेरे भाव से ही मैं को गति मिलती है। जितना मेरे का विस्तार करेंगे, मैं मजबूत होता जाएगा। यह सारी धन-दौलत प्रतिष्ठा, मैं के पोषण के लिए होती है। उपनिषदों में बड़ी सुन्दर बात आती है। कोई धन के लिए धन को प्रेम नहीं करता, मैं के लिए करता है। मैं के लिए धन को प्रेम किया जाता है। कोई पत्नियों के प्रति पत्नियों को प्रेम नहीं करता। मैं के लिए पत्नियों को प्रेम करता है। त्याग का अर्थ है उन सब सहारों को अलग कर देना जो इस मैं को मजबूत करते हैं लेकिन यह मैं बड़ा कुशल है। यह त्याग को भी अपनी बैसाखी बना लेता है। मैं इतना, मैंने इतना त्याग किया। मैं इतना त्यागी हूं, ये भी मैं को सहारा देने लगते हैं।यहूदियों की एक अच्छी कहावत है कि मैं कहने का अधिकार सिर्फ ईश्वर को है। इस कारण हम भगवान से क्षमा मांगें कि हम मैं और मेरा कहकर अपराध कर रहे हैं हम चोरे बन रहे हैं, दरअसल मैं हमारा कुछ है नहीं, सब परमात्मा का है तो लक्ष्मी के मामले में बहुत सावधान रहिए। लक्ष्मी के तीन भेद बताए गए हैं शास्त्रों में। लक्ष्मी, महालक्ष्मी और अलक्ष्मी। नीति और अनीति दोनों तरह से प्राप्त धन साधारण लक्ष्मी है। जिसका कुछ सदुपयोग भी होगा, कुछ दुरूपयोग भी। दूसरी है महालक्ष्मी। धर्मानुसार प्राप्त धन महालक्ष्मी है। श्रम की मात्रा से अधिक लाभ उठाना मुनाफा लेना पाप और चोरी है। जीव में धन नहीं धर्म मुख्य है। धर्म ही मृत्यु के पश्चात साथ जाता है। धर्मानुसार श्रमपूर्वक नीति से प्राप्त धन महालक्ष्मी है। ऐसा धन हमेशा शुभ कार्यो में खर्च होगा। अलक्ष्मी: पापाचरण अनीति से प्राप्त धन अलक्ष्मी है। ऐसा धन विलासिता में ही रह जाएगा। जीवन को शांति के बदले रुलाता जाएगा। शिशु के लालन-पालन में जिसका धन और समय लगा रहता है वह पुरूष ही शिशुपाल है। जो हमेशा सांसारिक ओर भौतिक सुखों के पीछे भागता है वही शिशुपाल है। ये शिशुपाल रुकमणीजी से विवाह करना चाहता था। भगवान् ने मथुरा में एक भी विवाह नहीं किया उन्होंने सभी विवाह द्वारिका में किए।
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