सोमवार, 4 अप्रैल 2011

भागवत २२३ ;प्रेम ऐसा हो तो उसे ढूंढना नहीं पड़ता

रुक्मिणी, भक्ति और प्रेम का सामंजस्य है। वह भगवान की जितनी भक्त हैं, उतनी ही प्रेमी भी। बिना देखे, बिना मिले, कृष्ण के गुणों से, स्वरूप से प्रेम हो गया। भगवान को देखा नहीं, लेकिन उनके अलावा कुछ दिखता भी नहीं। मन से अपना सबकुछ मान लिया। अपना सर्वस्व अर्पित भी कर दिया।जब प्रेम ऐसा हो जाए तो फिर परमात्मा को खोजने के लिए भटकना नहीं पड़ता। वह तो खुद ही हमें ढूंढता चला आता है।
रुक्मिणीजी ने मन में भगवान को सर्वोच्च स्थान दिया, अब उसके जीवन में भगवान खुद प्रवेश करने वाले हैं। खुद आएंगे और उसे सदा के लिए अपनी शरण में ले जाएंगे।जब रुक्मिणीजी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गईं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा। जब वे ब्राह्मण देवता द्वारकापुरी में पहुंचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गए।ध्यान रखें, जब संदेश भगवान को भेजना हो तो किसी श्रेष्ठ को ही चुनिए।
ऐसे व्यक्ति के हाथों भगवान को संदेश भेजें जो खुद भगवान और उस संदेश के महत्व को समझता हो। जीवन में यह कार्य आपका गुरु करता है। अगर पथभ्रष्ट या अज्ञानी को गुरु बनाया तो वह आपकी तपस्या पर पानी भी फेर सकता है।ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्व पुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह संतोष ही उसकी सारी कामनाएं पूर्ण कर देता है।
जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैशी, अहंकार रहित और शांत हैं उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं। श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मण देवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनाई। इसके बाद वे भगवान् से रुक्मिणीजी का संदेश कहने लगे। मैंने आपको पति रूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूं। आप यहां पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए। वे मुझ पर प्रसन्न हों, तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें।

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