शुक्रवार, 13 मई 2011

भागवत २५२ २५३

...इसलिए अपनी जिम्मेदारी के लिए जागरूक रहना जरूरी है
पं.विजयशंकर मेहता
बलराम के जीवन से जुड़ी एक कथा है। द्विविद नाम का एक वानर था, जो भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मंत्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था। जब उसने सुना कि श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्र की मित्रता के ऋण से उऋण होने के लिए राष्ट्र-विप्लव करने पर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गांवों, खानों और अहीरों की बस्तियों में आग लगाकर उन्हें जलाने लगा।
वानर तो भगवान् राम के सखा और सेेवक थे लेकिन अत्यधिक बल और मद में वे इसे ही भूल गए। भौमासुर जैसे राक्षस की मृत्यु का बदला लेने निकल पड़े। श्रीकृष्ण तो उन्हें मिले नहीं लेकिन बलराम से भेंट हो गई।एक दिन वह वानर बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजी को नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताए हुए देशों की दुर्दशा पर विचार करके उस शत्रु को मार डालने की इच्छा से क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान था। उसने अपने एक ही हाथ से शाल का पेड़ उखाड़ दिया और बड़े वेग से दौड़कर बलरामजी के सिर पर उसे दे मारा।
अब यदुवंश शिरोमणि बलरामजी ने हल और मूसल अलग रख दिए तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथों से उसके जत्रुस्थान (हंसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरती पर गिर पड़ा। द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अत: भगवान् बलरामजी ने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारिकापुरी में लौट आए।यही द्विविद जो राम अवतार में अच्छे कार्य करता रहा, श्रीकृष्णावतार में भटक गया, बहक गया।
अपनी भूमिकाओं के प्रति सदैव सजग रहा जाए। इसलिए परमात्मा का सतत् स्मरण और आचरण में संयम बनाए रखना चाहिए।मन एकाग्र करने के लिए यह दृढ़ भावना होना आवश्यक है कि कर्म किए बिना रहा नहीं जा सकता तो प्रथम तो निष्काम कर्म किया जाए और उन्हें ईश्वर अर्पण करके किया जाए क्योंकि ईश्वर ने ही दायित्व सौंपा है वह करना है।

इसलिए गुजरे कल को भुला देना ही ठीक है...
आइए अब हम एक ऐसे प्रसंग से गुजरें जो बता रहा है कि नई पीढ़ी के सदस्य कुछ ऐसे निर्णय और कार्य कर लेते हैं जो पूरे परिवार को दुविधा और संघर्ष में डाल देते हैं। युवावस्था स्वयं को मुक्त मानती है। मुक्त का आध्यात्मिक अर्थ समझकर प्रवेश करें प्रसंग में।अध्यात्म मनुष्य को मुक्त पुरुष बनाता है।निरहंकारी साधक कामनाओं से मुक्त होता है। कामनाओं का बन्धन जटिल और गांठ पर गांठ लगाने वाला होता है। कामनाओं की आपूर्ति में भय और संशय घर कर जाते हैं। ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास होने लगता है। यह एक प्रकार से घड़ी की सुई पीछे हटाने जैसा होता है।
एक यात्री यात्रा करता है तो वह सोचता है कि 100 मील की यात्रा में 70 मील चल दिए बस 30 मील शेष रहे, यात्री के रूप में वह 30 मील का विचार करता है, न कि बीते 70 मील की, इसी प्रकार बीते सुख-दुख का चिंतन अर्थहीन होता है। ईश्वरीय कृपा से शेष 30 मील भी पूरे हो जाएंगे यह मान्यता की आशंका से बचाती है। मन शांत रहता है। मुक्त अवस्था में पूर्वजन्म जिससे कुछ लेना नहीं उसी प्रकार आगामी जन्म का विवाद अर्थहीन होता है। कामना रहित सुखमय जीवन आसक्ति से बचाता है। आसक्ति और कामना मोह के जाल में उलझा देती है। मोह हुआ और आवागमन का चक्र चला।अनासक्त, कामना रहित, मोह ममता से परे, आस्थावान पुरुष का जीवन समग्रता लिए रहता है।
ये गुण उसकी सहज वृत्तियां बन जाती हैं। आध्यात्मिक जीवन जीने की कला आने पर ही ये वृत्तियां सहज बन जाती हैं। सहजता आने पर आत्मभिमुखता या अन्र्तदर्शिता की स्थिति का निर्माण होता है, तब मन शांत, संतुलित और सम रहता है।शांत मन आत्मा की ओर अभिमुख हो पाता है। ऐसी स्थिति में अन्त:करण (बुद्धि, चित्त और अहंकार) में ईश्वर का अनुभव करते हुए साधक में अनुभवगम्यता का विकास होता है। ध्यान जमने लगता है।

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