मंगलवार, 10 मई 2011

तीन कहानियां

कर्त्तव्य की रक्षा
फ्रांसीसी शहर तूलोन के पास एक टापू के प्रकाश गृह (लाइट हाउस) में काम करने वाला व्यक्ति अचानक बीमार हो गया। सवाल उठा कि अब जहाजों को रोशनी दिखाने का काम कौन करे। रात के केवल नौ ही बजे थे। रोशनी दिखाने वाले की पत्नी ने अपने कर्त्तव्य का महत्व समझ खुद ही लैम्प जला दिया। लैम्प जलाकर वह लौटी ही थी कि उसने पाया उसका पति मरणासन्न है। वह चिंतित हो गई। इतने में उसके सात साल के बेटे और नौ साल की बेटी ने आकर बताया कि लैम्प घूम नहीं रहा है।
दरअसल प्रकाश गृह का लैम्प चारों ओर घूमकर अपना प्रकाश फैलाता था। यदि वह एक ही दिशा को प्रकाशित करता तो जहाजों के टकराने और डूबने की आशंका थी। पत्नी पति को मृत्यु शय्या पर छोड़ बच्चों के साथ लैम्प ठीक करने चली गई, पर वह ठीक नहीं हुआ। उसने अपने बच्चों को वहीं बैठाते हुए कहा,' तुम लोग रातभर लैम्प को चारों ओर घुमाते रहना। आज बादलों के कारण चांद की रोशनी भी नहीं है।' यह कहकर वह अपने पति के पास चली गई।
दोनों बच्चे सुबह के छह बजे तक लैम्प घुमाते रहे। इस तरह उन्होंने कई जहाजों को रोशनी दिखाई और उन्हें दुर्घटना से बचाया। सुबह तक उन बच्चों के पिता का निधन हो चुका था। उनकी मां रो रही थी लेकिन उसके चेहरे पर कर्त्तव्य निभाने का संतोष झलक रहा था। वह जानती थी कि उसने और दोनों बच्चों ने एक महान काम को अंजाम दिया है और यही उसके पति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। संकलन: प्रवीण कुमार

सबसे बड़ी कला
बहुत पुरानी कथा है। किसी गांव में एक बड़ा ही होशियार लड़का रहता था। वह नई-नई चीजें सीखने में लगा रहता था। उसने एक तीर बनाने वाले से तीर बनाना सीखा, नाव बनाने वाले से नाव बनाने की कला सीखी। मूर्तिकार से मूर्तिकला की जानकारी हासिल की। इस तरह धीरे-धीरे वह एक के बाद एक बहुत सी कलाएं सीख गया। लेकिन उसे इस बात का अहंकार हो गया।
वह हमेशा सबसे कहता फिरता, 'मेरे बराबर दुनिया में कोई गुणवान नहीं है।' संयोग से उन्हीं दिनों गौतम बुद्ध घूमते हुए वहां आ पहुंचे। उन्हें जब उस लड़के के बारे में पता चला तो वह भिक्षापात्र लेकर उसके पास पहुंच गए। लड़के ने उन्हें देखकर पूछा, 'आप कौन हैं?' बुद्ध ने उत्तर दिया, 'मैं अपने शरीर को काबू में रखने वाला एक आदमी हूं।'
लड़का उनकी बात समझ नहीं पाया और बोला, 'मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझा। कृपा करके विस्तारपूर्वक समझाएं।' इस पर बुद्ध ने कहा, 'देखो, जो तीर चलाना जानता है, वह तीर चलाता है, जो नाव चलाना जानता है, वह नाव चलाता है और जो मूर्ति बनाना जानता है वह मूर्ति बनाता है। लेकिन जो ज्ञानी है, वह अपने ऊपर शासन करता है।' लड़के ने पूछा 'वह कैसे?' बुद्ध ने जवाब दिया, 'अगर कोई उसकी प्रशंसा करता है तो उसका मन चंचल नहीं होता। अगर कोई उसकी निंदा करता है तो भी वह शांत रहता है। ऐसा आदमी हमेशा सुखी रहता है। यह सबसे बड़ी कला है।'
लड़का उनका आशय समझ गया। उसने वचन दिया कि वह अपने भीतर से अपना अहंकार निकाल बाहर करेगा।
संकलन: लखविन्दर सिंह

सच्चे स्नेह का जादू

घटना उस समय की है, जब महात्मा गांधी को छह वर्ष के लिए यरवदा जेल भेजा गया। जेल सुपरिटेंडेंट अंग्रेज था। वह गांधीजी को ब्रिटिश अंग्रेज साम्राज्य का सबसे बड़ा शत्रु मानता था, इसलिए जब बापू के लिए कोई सेवक देने का अवसर आया, तो उसने एक अश्वेत अफ्रीकी को बापू की सेवा में लगा दिया। वह अफ्रीकी न तो हिंदी समझता था और न ही अंग्रेजी। केवल इशारों से ही उससे काम लिया जा सकता था। गांधीजी सुपरिटेंडेंट की धूर्तता को भांप गए। फिर भी उन्होंने कोई ऐतराज नहीं किया। वह उस अफ्रीकी से ही सहयोग लेने लगे। गांधीजी की कोशिश थी कि वह उनके प्रति पूरी तरह सहज हो जाए।
एक दिन उस अफ्रीकी को बिच्छू ने काट लिया तो वह भागा-भागा गांधीजी के पास पहुंचा और बिच्छू के काटे हुए स्थान को दिखाकर उनसे सहायता मांगने लगा। गांधीजी ने तुरंत उसका उपचार शुरू कर दिया। कुछ ही पलों में उसकी जलन शांत हो गई। फिर गांधीजी ने उसे कुछ दवाएं दीं और उस दिन काम न करने की छूट भी। वह अफ्रीकी गांधीजी से बेहद अभिभूत हुआ। उसे अपने जीवन में किसी भी अन्य व्यक्ति से इतना प्यार कभी नहीं मिला था। उस घटना के बाद वह बापू का भक्त बन गया और बड़े मनोयोग से उनकी सेवा करने लगा। गांधीजी और उसके बीच आत्मीय रिश्ता बन गया, जिसे देखकर जेल अधिकारी आश्चर्य में पड़ गया। उसने तो गांधीजी को परेशानी में डालने के लिए उस अफ्रीकी को उनकी सेवा में रखा था, पर हुआ ठीक उलटा। यह गांधीजी के सच्चे स्नेह का जादू था।
संकलन: लखविन्दर सिंह

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