मंगलवार, 17 मई 2011

भागवत २५५

जरूरी है निभाना अपनी जिम्मेदारी क्योंकि...
पं.विजयशंकर मेहता
राजा जनक का महाभारत में एक ब्राह्मण से हुए संवाद का वर्णन इस प्रकार किया गया है। ब्राह्मण ने पूछा - राज्य के प्रति किस प्रकार ममता को त्याग दिया? किस प्रकार राज्य को अपना समझते हैं और किस प्रकार नहीं समझते? राजा जनक का उत्तर था - इस संसार में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली सभी अवस्थाओं का एक न एक दिन अंत हो जाता है, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है। वेद भी कहता हैयहकिसकी वस्तु है, यह किसका धन है (अर्थात् किसी का नहीं है) इसलिए अपनी बुद्धि से विचार करता हूं तो कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जान पड़ती जिसे अपनी कह सकें।
इसी विचार से मैंने मिथिला के राज्य से अपना ममत्व हटा लिया। अब जिस बुद्धि का आश्रय ले सर्वत्र अपना राज्य समझता हूं वह सूनो। मैं अपनी नासिका में पहुंची हुई सुगन्ध सुख के लिए ग्रहण नहीं करता। मुख में पड़े हुए रसों का भी मैं तृप्ति के लिए आस्वादन नहीं करना चाहता। इसलिए जल तत्व पर भी विजय पा चुका हूं।तराजा जनक के मंत्री को शंका हुई और उन्होंने राजा ब्राह्मण ने जनक से पूछा - लोग आपको विदेह करते हैं, यह झूठा नहीं है क्या? आप राज्य चलाते हैं, गृहस्थी पालन करते हुए अच्छे व्यंजन खाते हैं, मखमली गद्दों पर सोते हैं। फिर आप विदेह कैसे।
राजा जनक ने कहा - आप कल शाम को 8 बजे हमारे साथ भोजन कीजिए, भोजन पर उत्तर दूंगा। उन्होंने दूसरे ही क्षण मंत्री के जाने के पश्चात सेनापति को बुलाया और मंत्री महोदय को रात्रि 9 बजे मृत्यु दण्ड देने की 'राज आज्ञा जारी कर भेजा। मंत्री को महान् आश्चर्य हुआ, वे विचार में पड़ गए, राजा से मिलना चाहा, राजा ने कहलवा दिया कि कल शाम को 8 बजे मिलेंगे। मंत्री को नींद नहीं आई, दिन में किसी काम में चित्त नहीं लगा, भोजन भी न कर सके, क्योंकि वे मृत्यु को सिर पर देख रहे थे। राज आज्ञा जो ठहरी। सोचते विचारते चिन्ता मग्न हो मंत्री ने 24 घण्टे बिताए। रात्रि 8 बजे भोजन पर राजा ने अच्छे-अच्छे पकवानों को स्वयं परोसा। राजा ने खाने के लिए कहा-मंत्री खाना आरम्भ नहीं कर सके। वे पूछ भी नहीं पा रहे थे कि मृत्यु दण्ड क्यों दिया। राजा पूछने लगे रसगुल्ले का स्वाद कैसा है? लड्डू कितने स्वादिष्ट हैं, आदि-आदि।
मंत्री झुंझला उठे क्या स्वाद। एक घंटे बाद तो मरना है? राजा जनक ने शांत भाव से कहा-अभी तो आपके पास एक घण्टा है-भोज्य पदार्थों में रस लीजिए न, मंत्री बोले-रस नहीं आ सकता महाराज जब मृत्यु सिर पर हो। राजा जनक ने गंभीर होकर कहा-बस मंत्रीजी। आपके विदेह संबंधी प्रश्न का उत्तर मैंने दे दिया। मंत्री ने पूछा वह कैसे? जब एक घण्टे की अवधि में आप रस नहीं ले सके। मैं तो निश्चित मानकर प्रत्येक कार्य करता हूं कि निमिश मात्र का अंतर भी जीवन और मृत्यु में नहीं है। बस कार्य करता रहता हूं। प्रभु प्रदत्त दायित्व निभाता हूं। जगत् का शासक एक ही है दूसरा कोई नहीं।
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