सवाल है भक्ति कैसे की जाए?
पं.विजयशंकर मेहता
ईश्वर सब दूर हैं, अणु-अणु में हैं और अणु-अणु उसमें हैं। वह सृजन या विनाश करते हुए बंधन मुक्त है, क्योंकि वह सब कर्मों में उदासीन की तरह अनासक्त भाव से अपने आप होता हुआ दृष्टा बना देखता है और उनकी मुश्किलों को हल करता है। इस क्रिया को राजविद्या अर्थात् सब विद्याओं का राजा कहा गया है और आगे ''पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:, वेद्यं पविभमोंकार ऋवक्साम यजुरदेव च।जगत् का पिता, माता, विधाता, जानने योग्य पवित्र ऊँकार ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद मैं ही हूं। अर्थात् ईश्वर है, श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश महानतम योगी ईश्वर के रूप में दिया।
माता-पिता, विधाता के रूप में ही साधक का भक्त को जो उन पर निर्भर रहते हैं का योगक्षेम वहाम्यहम् नित्य युक्त उपासना करने वाले का योगक्षेम वहन करते हैं।योग अर्थात् प्राप्त करना (साधक को उच्चतम भक्ति भावना का निर्माण) क्षेम अर्थात् प्राप्त को संभालकर रखना। इसका अर्थ जगत की विभीषिकाओं से रक्षा करने से भी लिया जाता है। अर्जुन की पग-पग पर रक्षा की। भक्त प्रहलाद को अनुभव नहीं होने दिया कि विपत्ति या कष्ट क्या होता है? देवर्षि नारद ने भक्ति के संदर्भ में उदाहरण दिया है।
तुलसीदासजी ने शबरी के सम्मुख श्रीराम के मुख से कहलवाया-
''कह रघुपति सुन भामिनि बाता। मानो एक भक्ति कर नाता।।
सवाल है भक्ति कैसे की जाए -
भगवान श्रीकृष्ण इस सवाल का सटीक उत्तर देते हैं-
''मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु! मामेवैश्यसि युक्तवैवामात्मनं मत्परायण:।। 34।।
परमात्मा में अनन्य मन वाला हो, मुझ (परमात्मा) में मन लगा, मेरा भक्त बन (अनन्य का नहीं), मेरे निमित्त यज्ञ (सद्कर्म) कर मुझे नमस्कार कर (सियाराम मय सब जग जानि कर, प्रणाम जोरि युग पानी) मुझमें परायण होकर आत्मा को मेरे साथ युक्त (जोड़) कर मुझे प्राप्त कर लेगा। भगवान् की सत्य प्रतिज्ञा है।भगवान् के साथ जोडऩा योग है।
कर्म को जोडऩा कर्म योग, कर्मफलों को ईश्वर अर्पण करना राजयोग, जो कहता है-कर्मफलों को छोड़ मत, बल्कि ईश्वर अर्पण कर दो, ये वे फूल हैं आगे जो जाने के साधन हैं, उसे भगवत-भाव मूर्ति पर चढ़ाओ। कर्म किए हैं तो फल तो निर्मित होगा ही स्वयं फलों का उपयोग करना, भोगना है, दूसरे उपभोग करें यह सेवा रूप में है और ईश्वर अर्पण में फल-त्याग ही सच्चा योग है। प्रेमी को सर्वस्व अर्पित कर दिया जाता है।
पं.विजयशंकर मेहता
ईश्वर सब दूर हैं, अणु-अणु में हैं और अणु-अणु उसमें हैं। वह सृजन या विनाश करते हुए बंधन मुक्त है, क्योंकि वह सब कर्मों में उदासीन की तरह अनासक्त भाव से अपने आप होता हुआ दृष्टा बना देखता है और उनकी मुश्किलों को हल करता है। इस क्रिया को राजविद्या अर्थात् सब विद्याओं का राजा कहा गया है और आगे ''पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:, वेद्यं पविभमोंकार ऋवक्साम यजुरदेव च।जगत् का पिता, माता, विधाता, जानने योग्य पवित्र ऊँकार ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद मैं ही हूं। अर्थात् ईश्वर है, श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश महानतम योगी ईश्वर के रूप में दिया।
माता-पिता, विधाता के रूप में ही साधक का भक्त को जो उन पर निर्भर रहते हैं का योगक्षेम वहाम्यहम् नित्य युक्त उपासना करने वाले का योगक्षेम वहन करते हैं।योग अर्थात् प्राप्त करना (साधक को उच्चतम भक्ति भावना का निर्माण) क्षेम अर्थात् प्राप्त को संभालकर रखना। इसका अर्थ जगत की विभीषिकाओं से रक्षा करने से भी लिया जाता है। अर्जुन की पग-पग पर रक्षा की। भक्त प्रहलाद को अनुभव नहीं होने दिया कि विपत्ति या कष्ट क्या होता है? देवर्षि नारद ने भक्ति के संदर्भ में उदाहरण दिया है।
तुलसीदासजी ने शबरी के सम्मुख श्रीराम के मुख से कहलवाया-
''कह रघुपति सुन भामिनि बाता। मानो एक भक्ति कर नाता।।
सवाल है भक्ति कैसे की जाए -
भगवान श्रीकृष्ण इस सवाल का सटीक उत्तर देते हैं-
''मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु! मामेवैश्यसि युक्तवैवामात्मनं मत्परायण:।। 34।।
परमात्मा में अनन्य मन वाला हो, मुझ (परमात्मा) में मन लगा, मेरा भक्त बन (अनन्य का नहीं), मेरे निमित्त यज्ञ (सद्कर्म) कर मुझे नमस्कार कर (सियाराम मय सब जग जानि कर, प्रणाम जोरि युग पानी) मुझमें परायण होकर आत्मा को मेरे साथ युक्त (जोड़) कर मुझे प्राप्त कर लेगा। भगवान् की सत्य प्रतिज्ञा है।भगवान् के साथ जोडऩा योग है।
कर्म को जोडऩा कर्म योग, कर्मफलों को ईश्वर अर्पण करना राजयोग, जो कहता है-कर्मफलों को छोड़ मत, बल्कि ईश्वर अर्पण कर दो, ये वे फूल हैं आगे जो जाने के साधन हैं, उसे भगवत-भाव मूर्ति पर चढ़ाओ। कर्म किए हैं तो फल तो निर्मित होगा ही स्वयं फलों का उपयोग करना, भोगना है, दूसरे उपभोग करें यह सेवा रूप में है और ईश्वर अर्पण में फल-त्याग ही सच्चा योग है। प्रेमी को सर्वस्व अर्पित कर दिया जाता है।
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