शनिवार, 7 मई 2011

विधवाओं के लिए सुहागनों सा श्रृंगार वर्जित क्यों?

कहते हैं पत्नी-पति की अद्र्धांगिनी होती है अर्थात जब विवाह होता है तब दो लोग एक हो जाते हैं। मैं विवाह के बाद हम बन जाता है। स्त्री का धन उसका पति होता है। नियति या दुर्भाग्य के कारण जब किसी स्त्री का पति इस दुनिया को छोड़ देता है, तो उस स्त्री को जीवन में असंख्य चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। विधवा या विडो के रुप में उसे कड़े संघर्षों से होकर गुजरना पड़ता है।

भारतीय संस्कृति में दुनिया से अलग अपनी अनोखी ही सोच व मान्यताएं हैं। भारतीय नारियों का गहना प्रेम सारी दुनिया में विख्यात है। इतना होने पर भी यह भारत ही है, जहां की नारियां यह सोचती हैं कि स्त्री के लिये उसका पति ही सर्वश्रेष्ठ गहना या आभूषण है। महिलाओं का सजना-धजना सबकुछ सिर्फ अपने पति के लिए है। इसीलिए हमारे यहां सुहागन स्त्रियों के लिए श्रृंगार अनिवार्य माना जाता है। विवाहिता स्त्री का श्रृंगार अपने पति के प्रति अटूट और एकनिष्ठ प्रेम ही उसे दुनिया से अलग पहचान और गौरव दिलाता है। जीवन के हर क्षेत्र में धर्म और अध्यात्म का गहराई से शामिल होना किसी समाज की महान परंपराओं को दर्शाता है।
इसलिए सुहागनों के लिए श्रृंगार को जरूरी माना गया है जबकि विधवाओं के लिए सफेद लिबास को अधिक उपयुक्त माना गया है। रंगों के विज्ञान की अलग ही दुनिया और अहमियत है। प्रमुख सात रंगों में से हर एक रंग का अपना खास प्रभाव और महत्व होता है। सूर्य के सात रंगों का आज चिकित्सा के रुप में प्रयोग होने लगा है। सफेद रंग सर्वाधिक पवित्र और सात्विक रंग है।
विधवा या विडो स्त्री का पति विहीन जीवन कई संघर्षों से भरा होता है। ऐसे में विधवा स्त्री को ईश्वर की कृपा और सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। सफेद रंग का लिबास उसे मनोबल और सात्विकता प्रदान करता है। जीवन की सभी जिम्मेदारियों और चुनौतियों का सफलता से सामना करने में सफेद रंग के पहनावे की बड़ी अहम् भूमिका होती है। यही कारण रहा है कि विधवा स्त्रिया स्वयं की मरजी से ही सफेद रंग का लिबास पहनने लगती हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें