मंगलवार, 12 जुलाई 2011

हिरनी के गर्भ से लिया ऋषि ने जन्म क्योंकि...

एक बार युधिष्ठिर नन्दा और अपरनन्दा नाम की नदियों पर गए जो हर प्रकार से पाप और भय को नष्ट करने वाली थी। तब लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा राजन्- इस नदी में स्नान करने वाला हर तरह के पाप से मुक्त हो जाता है। यह सुनकर युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ उस नदी में स्नान किया। उसके बाद वे लोग कौशिक नदी के किनारे गए। वहां जाकर लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा- इस नदी के किनारे आपको जो आश्रम दिखाई दे रहा है। वह कश्यप मुनि का है। महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋषिश्रृंग का आश्रम भी यहीं है। उन्होंने एक बार अपने तप के प्रभाव से वर्षा को रोक दिया था। वे परमतेजस्वी हैं। उन्होंने विभाण्डकमुनि और मृगी के उदर से जन्म लिया है।
अनावृष्टी होने पर उस बालक के भय से वृत्रासुर वध करने वाले इन्द्र ने कैसे वर्षा की। तब युधिष्ठिर ने कहा लेकिन पशुजाति के साथ योनी संसर्ग होना तो शास्त्रों की दृष्टी से गलत है। तब लोमेशजी बोले महर्षि विभाण्डक बड़े ही साधुस्वभाव और प्रजापति के समान तेजस्वी थे। उनका वीर्य अमोघ था। तपस्या के कारण अंत:करण शुद्ध हो गया। एक बार वे एक सरोवर पर स्नान करने लगे। वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित को गया।
इतने में ही वहां एक प्यासी मृगी आई वह जल के साथ वीर्य भी पी गई। इससे उसका गर्भ ठहर गया। वास्तव में वह एक देवकन्या थी। इसे शाप देते हुए कहा था कि तू मृगजाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को उत्पन्न करेगी। तब शाप से छूट जाएगी। विधि का विधान अटल है। इसी से महामुनि ऋषिश्रृंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके सिर पर एक सींग था। इसलिए उनके मन में हमेशा ब्रम्हचर्य रहता था।
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