गुरुवार, 14 जुलाई 2011

छोटा जादूगर

कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हंसी और विनोद का कलनाद गूंज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास जहां एक लडक़ा चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुंह पर गंभीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी संपूर्णता थी। मैंने पूछा -‘क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?’
‘मैंने सब देखा है। यहां चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नंबर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूं।’- उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।

मैंने पूछा - ‘और उस परदे में क्या है? वहां तुम गए थे।’

‘नहीं, वहां मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।’

मैंने कहा -‘तो चलो, मैं वहां तुमको लिवा चलूं।’ मैंने मन-ही-मन कहा -‘भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।’

उसने कहा - ‘वहां जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाए।’

मैंने सहमत होकर कहा - ‘तो चलो, पहिले शर्बत पी लिया जाए।’ उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।

मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की संध्या भी वहां गर्म हो रही थी। हम दोनों शर्बत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा -‘तुम्हारे और कौन हैं?’

‘मां और बाबूजी।’

‘उन्होंने तुमको यहां आने के लिए मना नहीं किया?’
‘बाबूजी जेल में है।’

‘क्यों?’

‘देश के लिए।’ - वह गर्व से बोला।

‘और तुम्हारी मां?’

‘वह बीमार है।’

‘और तुम तमाशा देख रहे हो?’

उसके मुंह पर तिरस्कार की हंसी फूट पड़ी। उसने कहा -‘तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूं। कुछ पैसे ले जाऊंगा, तो मां को पथ्य दूंगा। मुझे शर्बत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।’
मैं आश्चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।

‘हां, मैं सच कहता हूं बाबूजी! मां जी बीमार हैं; इसलिए मैं नहीं गया।’

‘कहां?’

‘जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर मां की दवा करूं और अपना पेट भरूं।’

मैंने दीर्घ नि:श्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा - ‘अच्छा चलो, निशाना लगाया जाए।’

हम दोनों उस जगह पर पहुंचे, जहां खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिए।

वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद खाली नहीं गया। देखनेवाले दंग रह गए। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया; लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रूमाल में बंधे, कुछ जेब में रख लिए गए।

लड़के ने कहा - ‘बाबूजी, तमाशा दिखाऊंगा। बाहर आइए, मैं चलता हूं।’ वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा - ‘इतनी जल्दी आंख बदल गई।’ मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्मात किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा -‘बाबूजी!’

मैंने पूछा -‘कौन?’

‘मैं हूं छोटा जादूगर।’

कलकत्ते के सुरम्य बोटानिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी-झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मंडली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफ जांघिया और आधी बांहों का कुरता। सिर पर मेरी रूमाल सूत की रस्सी से बंधी हुई थी। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा -‘बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए, तो खेल दिखाऊं।’

‘नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।’

‘फिर इसके बाद क्या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?’

‘नहीं जी, तुमको..’, क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमती ने कहा - ‘दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आए। भला, कुछ मन तो बहले।’ मैं चुप हो गया; क्योंकि श्रीमती की वाणी में वह मां की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका जा नहीं सकता। उसने खेल आरंभ किया।

उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बंदर घुड़कने लगा।

गुड़िया का ब्याह हुआ। गुड्ड़ा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए।
मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है। ताश के सब पत्ते लाल हो गए। फिर सब काले हो गए। गले की सूत की डोरी टुकड़े-टुकड़े होकर जुड़ गई। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा - ‘अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जाएंगे।’

श्रीमती जी ने धीरे से उसे एक रुपया दे दिया। वह उछल उठा। मैंने कहा - ‘लड़के!’

‘छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।’ मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमती ने कहा - ‘अच्छा, तुम इस रुपए से क्या करोगे?’

‘पहले भर पेट पकौड़ी खाऊंगा। फिर एक सूती कंबल लूंगा।’

मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्घ होकर सोचने लगा - ‘ओह! कितना स्वार्थी हूं मैं। उसके एक रुपए पाने पर मैं ईष्र्या करने लगा था न!’

वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुंज देखने के लिए चले।

उस छोटे-से बनावटी जंगल में संध्या सांय-सांय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य की अंतिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। शांत वातावरण था। हम लोग धीरे-धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे। रह-रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। सचमुच वह एक झोंपड़ी के पास कंबल कंधे पर डाले खड़ा था। मैंने मोटर रोककर पूछा - ‘तुम यहां कहां?’

‘मेरी मां यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है।’ मैं उतर गया। उस झोपड़ी में देखा, तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई कांप रही थी। छोटे जादूगर ने कंबल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा - ‘मां।’

मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े।

बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने ऑफिस में समय से पहुंचना था। कलकत्ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते-चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्छा हुई। साथ-ही-साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता, तो और भी..। मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्द लौट आना था।

दस बज चुका था। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककर उतर पड़ा। वहां बिल्ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था। ब्याह की तैयारी थी; यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हंसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसे स्वयं कांप जाता था। मानो उसके रोएं रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण-भर के लिए स्फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा - ‘आज तुम्हारा खेल जमा क्यों नहीं?’

‘मां ने कहा है कि आज तुरंत चले आना। मेरी घड़ी समीप है।’- अविचल भाव से उसने कहा।

‘तब भी तुम खेल दिखलाने चले आए!’ मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्य के सुख-दु:ख का माप अपना ही साधन है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है।

उसके मुंह पर वही परिचित तिरस्कार की रेखा फूट पड़ी। उसने कहा - ‘न क्यों आता!’

और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था। क्षण-भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा - ‘जल्दी चलो।’ मोटरवाला मेरे बताए हुए पथ पर चल पड़ा।

कुछ ही मिनटों में मैं झोंपड़े के पास पहुंचा। जादूगर दौड़कर झोंपड़े में मां-मां पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था; किंतु स्त्री के मुंह से, ‘बे..’ निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गये।

जादूगर उससे लिपटा रो रहा था, मैं स्तब्ध था।

उस उज्‍जवल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने लगा।
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